मंगलवार, 26 अगस्त 2008

सुबह की सैर और दिव्य अनुभुति

सुबह-सुबह वॉक पर निकली इस बात को नजर अन्दाज करते हुई कि, की बाहर बारिश हो रही है। वैसे बारिश की आवाज मानो संगीत.. कानो मे अमृत घोल रही थी, और मै जान-बूझकर घर मे किसी को जगाये बिना निकल पडी, एक तो अभी ही एलर्जी ठीक हुई ( अगर घर में किसी को पता चल गया) तो कोई जाने नही देगा। बाहर रास्ते पर कोई भी नही दिख रहा था, पर मुझे तो जैसे बारिश की धार आकृष्ट कर रही थीं, रास्ता अकेला हो तो अमूमन मै आसपास ही चहलकदमी कर लेती हूँ, पर उमडती-घुमडती घटाओं के साथ, सीमा याद नही रख सकी और निकल पडी उन गलियों मे जिधर अक्सर चिड़ियों को देखने उनके कलरव के आनन्द मे डूबने के लिये निकल पडती हूँ, और कारण भी यही है कि मुझे सुबह आकर्षित करती है। वरना गहरी नींद मे सोने से बेहतर वॉक पर जाना... ऐसा जैसे कि चॉकलेट से बेहतर गुड समझना... ।
बारिश धीमी नही थी, तेज भी नही थी, आनंदमग्न होने के लिये बढिया थी... भीगते वक्त याद आने लगी कुछ पुरानी बातें, उन दिनो मे सुबह बारिश हो जाये तो मुसीबत आ जाती, स्कूल कैसे जायें? भीगने का डर नही होता, बल्कि घुटने तक कीचड़ साईकिल के पहियो का जमने का डर सालता.. और इसी डर के साथ निकल जाते.. स्कूल पहूँचते पहूँचते तो चिडियाघर से भागे बन्दर तो दिखती ही मै( ऐसे भी कोई अच्छी नही दिखती) अब वापसी मे प्रार्थना की जाती की हे भगवान बारिश ना थमे... इसका फायदा होगा कि साईकिल को अलग से धोना नही पडेगा... आप से आप धुल जायेगी (बचपन की आलसी जो ठहरी) वैसे उधर कोटा की अपेक्षा ज्यादा बारिश होती है, और गाँव मे तो पक्की सड़कें भी नही हैं, कच्ची सडको पर कीचड लगना आम बात है... यही नहीं.. कपडे धुल जायें तो सूखेंगे कैसे? वाशिंग-मशीन भी तो नहीं है, और होता भी तो बिजली के बिना; बिना सर पैर का सिपाही होता... खैर

... और याद आने लगा कि कैसे मम्मी कुछ सूखी-भीगे लकड़ियों से चुल्हा जलाने की कोशिश करती रहती... और दादा जी परेशान होते मम्मी की परेशानी देखकर... पर वो भी क्या करते? बारिश मे सब कुछ भीग ही जाता... और मेरी गाय.. जिसका बहुत प्यार से मैने नाम रखा था सुमन.. एक ही खूँटे पर बँधी-बँधी परेशान हो जाती, उसे एक जगह पर स्थित होना अच्छा नही लगता था... बहुत सीधी सी थी वो.. पर बारिश मे वो बहत परेशान होती... दूसरे खूँटे तक आने के लिये रँभाती रहती... पर हम भी बेबस थे...और एक बारिश मे उसने जाने कैसे.. रस्सी तोड ली... भागी बाहर... बाहर गिर पडी फिर फिर कभी ना उठी.... उसके बाद दूसरी गाय आयी... पर सुमन की जगह कोई नही ले सका.. सुमन की याद आते ही पिछली यादो से रिश्ता टूट गया.. वैसे जुड़ना चाहिये था.. पर टूट गया, कारण कि मेरे सामने वैसी ही एक धवल गाय रंभाते खडी थी... मै सोच रही थी कि काश ये मेरी सुमन होती... मै थोडी देर खडी रहे... मेरे सुमन होती तो दौडकर आती और मुझे चाटना शुरू करती.. यथार्थ कल्पना पर हावी हो गया... तब समझ मे आया कि मै ज्यादा भीग ली लौटना चाहिये..

पर दुख: मूल नही होता... और मन स्थिर नही होता... मन चल पडा... नये अनुभव की तरफ शायद कुछ ज्यादा ही भीग ली, अन्तःकरण से अपने ही अहसासों मे काफी बदलाव महसूस कर रही थी, बारिश मे धुल रहे पेड पौधे मुझे बहुत प्यारे लगते हैं, और आज तो जैसे हर डाली मुझे अपनी सी लग रही थी... इनके साथ जैसे अपने अन्दर भी कुछ अलग अनुभव हो रहा था... अपनी ही धडकनो को सुन रही थी... आनंद के सरोवर मे जैसे हिलोरे लेने लगी (हाँ असली नदी में तो नही उतरती तैरना नही आता :P)... और साथ मे मेरे डालियों पर झूमती पत्तियाँ, बहती धार की रूनझून, त्वचा को छूकर निकलती बूंदे पलको पर ठहरती बूंदे , एक जगह टिक कर इन सबके आनन्द मे मग्न, तभी नजर पडी, उस पेड पर जहाँ तोतें बारिश मे एक डाली से दूसरे पर चहलकदमी कर रहे थे|

तभी अचानक फिर से यथार्थ मे लौटी, अरे मैं यहाँ कैसे आ गयी.. मै तो लौट रही थी.. आसपास ध्यान दिया तो ध्यान मे आया कि इसी गली मे मोर मोरनी भी दिख जाते हैं, मोर याद आते ही, पंख फैलाये मोर की छवि भी आँखो के सामने तिर आयी... और ज्यादा नही ढूँढना पडा, युगल दिख ही गये, नाचता मोर, मोर के साथ मोरनी, मोर एक ही था, और साथ ४ मोरनी, और देखते ही देखते, विचार कहाँ से कहाँ परिवर्तित हुए, एक मोर जैसे कृष्णा की तरह बीच मे बंसी थामे, और इर्द-गिर्द गोपियाँ राधा संग नृत्य कर रही हों, फिर विचार पलटे, अरे ये क्या ये तो मोर है, कृष्णा थोडी ना है, फिर कान्हा तो बंसी बजाते थे, नाचने का काम गोपियों का था, ये मोर तो नाच रहा है.. फिर ध्यान आया कि कल तो कान्हा का जन्मदिन था, जन्माष्टमी, गाँव पर होती तो दादी डाँट-डपटकर व्रत करने के लिये तैयार करवा हीं देती मुझको, लेकिन अभी कितना अच्छा है, मैने तो जन्मदिन पर मिठाई खाई... आखिर किसी को तो अच्छे से सेलिब्रेट करना चाहिये, और मन ही मन सोच मुस्कुरा उठी.. फिर लगा कि.. अरे ये सही था कि गलत वो तो कान्हा ही बता सकते है... और फिर तलाश हुई कान्हा कि कान्हा ओ कान्हा...

मोर मुकुट पीताम्बर धारी
तुम तो हो घट-घट मे व्यापी
मेरी अखियाँ दरस को प्यासी

कहाँ मिलोगे हे गिरधारी
ना मै मीरा, ना मै राधा
ना मै जोगन, ना मै दासी
जानू ना मै प्रीत भी साची
ना ही मुझको भक्ति ही आती

गरज बरस के बरसे बदरीया
इत-उत ढूँढू तोके साँवरिया
सोचूँ और फिर खुद पर हँस लूँ
बन के झूमूं मै तो बावरियाँ

ये नही गोकुल, ना ही वृन्दावन
कहां मिलोगे, ओ मेरे मनमोहन
ना मै मीरा, ना मै राधा
क्या दोगे फिर भी तुम दरसन
क्या दोगे मुझको भी दरसन

शायद और कुछ भी सोचा हो... (गाया नही..) खाली पीली मे लोगो की अच्छी नींद उड जाती... हाँ पर रास्ते पर गुनगुनाने का पहला अवसर था... शायद बारिश की बूँदो और कान्हा की तलाश ने शराफत (लाज) का वो पर्दा उडा दिया... होश मे जाने कब आयी... याद नही आ रहा है... घर आने के बाद भी वो मस्ती रही... दैनिक काम मे ... आदतन लगी रही.. लेकिन वाकई जो मस्ती वही रही, वो जा नही रही थी... लेकिन वक्त बहुत रहम है... धीरे धीरे वो अहसास ऐसी याद मे परिवर्तित होता जा रहा है, जिसे याद तो किया जा सकता है, पर ना जिसकी अभिव्यक्ति संभव हो पा रही है...ना जिसका अनुभव हो पा रहा है... कुछ बेचैनी सी छायी है... आलम यह है कि खुद को नही समझ मे आ रहा है कि क्या चाहिये... कुछ भी समझ मे नही आ रहा है... बार बार याद कर रही हूँ, बरसता मौसम, बारिश की छम-छम, मोर का नाच, तोतों की चहलकदमी, धुली पत्तियाँ... पर वो सब कुछ ऐसा ही है कि मानो फिल्म चल रही है, पर मौसम की बहार से मन अछूता है... काश ऐसी सुबह फिर से आये.. और उस दशा को मै फिर से प्राप्त होऊँ :)