क्यों खोजूं तुझे कहीं और,
क्या तू मुझमे शामिल नहीं है?
किसकी खोज करूं आखिर?
क्या मेरे अस्तित्व में,
तेरा अस्तित्व शामिल नहीं है?
तेरे बिन पूर्णता
आखिर किस कदर होगी?
क्या तेरा ओज़,
हर शय को हासिल नहीं है?
ये प्रश्न भी आता है सामने कि,
गर तू,
मुझमें और सम्पूर्ण जगत में
शामिल है।
तेरा ओज़ हर कण को हासिल है।
फिर वो जो तुझे ढ़ूंढ़ते हैं,
पवित्र दीवारों में
मंत्रों और आज़ानो में
जो बताते हैं हमें,
कि तेरा अस्तित्व शामिल हैं
उनके हरेक व्यख्यानो में।
उनकी नज़रें, दीदार कर सके
हर कण में तेरा अक्स,
वो रोशनी उन्हें क्यों हासिल नहीं है?
खुला आकाश, महकता पवन, खिलखिलाता मौसम... और अचानक कही दर्द, रूठता मौसम, सिमटता जीवन, ये सभी रूप जीवन के ही रूप है, एक दुसरे से अलग पर एक दुसरे के बिना अधूरे
शुक्रवार, 30 सितंबर 2011
सोमवार, 19 सितंबर 2011
जानती हूं तेरे महफिल के काबिल नही हूं। तो क्या जीना छोड़ दूं?
जानती हूं तेरे महफिल के काबिल नही हूं।
तो क्या जीना छोड़ दूं?
या बंद कर लूं, खूद को ऐसे अंधेरे में।
जहां तेरे महफिल की रोशनी की झलक भी ना आए।
ना वो झंकार सुनाई दे मेरे कानो में।
ना तेरी आवाज ज़हन को चीर जाए
ना वो प्यास जगे होठों पर
ना वो तड़प तुझ तक जाए….
पर इस कदर जी भी तो नहीं सकती
माना कि,
मेरे अक्स मे इतना दम नहीं
जिसमे जगमगा सके तेरा महफिल
पर एक वजुद तो मेरा भी है…
कैसे मिटा दूं इस हस्ती को?
या फिर वो हक तुझे दे दूं!
जिसके लिए मेरा होना,
किसी शाप से कम नहीं।
इसलिए
तुझे तेरे महफिल की सारी रंगीनियां मुबारक
मैं, मेरे वजुद को समेटे
एक अलग दुनिया बना लूंगी।
इस खुशफहमी में मत जीना कि
लौट कर आऊंगी मैं कभी
कि मेरे पग लड़खड़ायेंगे
या थरथरा जाएगी मेरी जुबान
या मेरी दुनिया का अंधेरा मुझे
तेरी रोशनी में लौटने पर विवश कर देंगे।
तेरी नजर में जो मेरी यह अंधेरी दुनिया है
वो तेरे महफिल से बेहतर होगी
क्योंकि यह मेरे अपने जीने की वजह होगी…
तो क्या जीना छोड़ दूं?
या बंद कर लूं, खूद को ऐसे अंधेरे में।
जहां तेरे महफिल की रोशनी की झलक भी ना आए।
ना वो झंकार सुनाई दे मेरे कानो में।
ना तेरी आवाज ज़हन को चीर जाए
ना वो प्यास जगे होठों पर
ना वो तड़प तुझ तक जाए….
पर इस कदर जी भी तो नहीं सकती
माना कि,
मेरे अक्स मे इतना दम नहीं
जिसमे जगमगा सके तेरा महफिल
पर एक वजुद तो मेरा भी है…
कैसे मिटा दूं इस हस्ती को?
या फिर वो हक तुझे दे दूं!
जिसके लिए मेरा होना,
किसी शाप से कम नहीं।
इसलिए
तुझे तेरे महफिल की सारी रंगीनियां मुबारक
मैं, मेरे वजुद को समेटे
एक अलग दुनिया बना लूंगी।
इस खुशफहमी में मत जीना कि
लौट कर आऊंगी मैं कभी
कि मेरे पग लड़खड़ायेंगे
या थरथरा जाएगी मेरी जुबान
या मेरी दुनिया का अंधेरा मुझे
तेरी रोशनी में लौटने पर विवश कर देंगे।
तेरी नजर में जो मेरी यह अंधेरी दुनिया है
वो तेरे महफिल से बेहतर होगी
क्योंकि यह मेरे अपने जीने की वजह होगी…
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