बुधवार, 20 फ़रवरी 2008

हाँ कुछ तो पढ़ा

चलते चलते अनुराधा जी बोली ये पढा ? लिंक देकर तो वो गायब हो गयीं, मैने अनमने भाव से पढ़ना शुरु किया, माफ किजिये अनमना इसलिये कहा कि पढ़ने जैसा मन नही हो रहा था, फिर भी पढ़ना शुरु किया।
सुजाता जी ने अपने पोस्ट मे दो लिंक दिये हैं, उनके साथ आगे बढ़ गयी, और कुछ ही देर मे विचारो के लहर बनने बिगड़ने लगे।
अभी मुझे ठीक से समझ मे नही आ रहा है कि मैने क्या पढ़ा... और पढ़ा तो क्या पढ़ा? या जिसने लिखा लिखते वक्त उसके दिमाग मे क्या चल रहा होगा?
मैने जिस मनोदशा मे पढ़ा क्या वो स्थिती लेखिका के मनोदशा से तालमेल बिठा पा रहे हैं? इन सवालो के जवाब मे उलझ गयी हूँ।
अब बात ये रही कि, अगर मै ऐसी ही उलझी हो तो लिखने क्यूँ बैठी? और लिखा भी तो सिर्फ डायरी एक पन्ने मे रहने देती... जरूरत क्या है जग जाहिर करने की? इसका जवाब भी नही है मेरे पास।
खैर, मै जो सोच रही हूँ वो कि, "मै" जो कुछ हूँ, उसका मुल्यांकन अगर "मै अपने तरीके से नही कर सकती तो, मेरे होने का मतलब ही क्या है?
"मेरे" होने का सार्थक मतलब तो तभी निकल पायेगा, जब मै खुद को जान सकूंगी, लेकिन शायद समाजिक लोगो को यह बात पसन्द नही, उन्हे "मेरे" होनेपन के अस्तित्व का बोध होने से खतरा है, या खुद "मै" मेरे होनेपन की स्थिती को स्वीकार करने से घबड़ाती हूँ।
कल शाम पड़ोसी अंकल से ऐसे बात हो रही थी, बात ही बात मे वो अपने आपको सम्पूर्ण सामाजिक बताने के कोशिश मे लगे थे, उनके साथ उनकी सहधर्मिणी भी थी।
वो दोनो बता रहे थे, सामाजिक होना कितना मेहनत का, चातुर्य का, और सम्बल का काम है, ये हर किसी के बस की बात नही है, वगैरह वगैरह।
मैने उनसे पुछा कि" ऐसे मे आप अपने लिये, अपनी सोच के लिये वक्त निकाल पाते हैं?" क्या आप अपने ही अन्दर के भावो को समझ पाते हैं?" या आप अपने अपनो को, अपने बीवी बच्चो के मनोभाव समझ पाते हैं?"
इसके जवाब मे वो बोले, समझना क्या है, ये तो मेरे अपने हैं, ये तो मेरी हर बात मान ही लेंगे।
बात यह सोचने कि है, जो इंसान खुदको नही समझ पाया,वो समाजिक कैसे बनेगा? वहाँ तो बात और गम्भीर है, वहाँ तो ना जाने कई अस्तित्व हैं, जो खुद भी खुद को नही जानते, उन्हे कैसे किसी नियम मे बान्धा जा सकता है? य कुछ समझाया जा सकता है?
सीधी सी बात है, रोशनी देने के लिये, या किसी के घर का दीया जलाने के लिये अपने घर जलता दीया चाहिये ही चाहिये, इसके बिना काम नही हो सकता।
हमारी स्थिती भी कुछ ऐसी ही है, हम खुद अपनी स्थिती से या तो नावाकिफ हैं, या जानते हूए भी उसे ना जानने का ढोंग करते हैं, जैसा कि मनीषा जी कहती हैं कि "दादी के पैमाने ज्‍यादा संकुचित थे, मां के उनसे थोड़ा उदार और हॉस्‍टल के सहेलियों के थोड़ा और उदार। लेकिन पतित सभी की नजरों में रही हूं। जैसेकि शीशे के सामने चार बार खड़ी हो गई, या कोई रोमांटिक गाना गुनगुनाया, थोड़ा ज्‍यादा नैन मटका लिए, चलते समय पैरों से ज्‍यादा तेज आवाज आई, भाइयों के सामने बिना दुपट्टा हंसी-ठट्ठा किया तो दादी को मेरे अच्‍छी लड़की न होने पर भविष्‍य में ससुराल में होने वाली समस्‍याओं की चिंता सताए जाती थी।

यह समस्या एक अकेली मनीषा जी कि नही, लगभग हर लड़की की रही होगी, और मै यकिन के साथ कह सकती हूँ कि दादी के साथ भी रही होगी, इसके बावजुद दादी समझ नही पायी और सामाजिक बनते हूए, अपनी पोती को समाजिक बनाने के प्रयत्न मे लगी रहती हैं।
मेरी दादी अक्सर मुझे बताया करती थी कि उन्हे अमरूद खाना बहुत पसन्द है, इसलिये वो हमेशा चाहती कि माँ उन्हे थोड़ा ज्यादा दे दे, लेकिन ऐसा हो नही पाता था, अक्सर भाईयो को बड़ा हिस्सा मिलता, जिन्हे वो कुतर कुतर कर फेंक देते, इस तरह के कई किस्से वो बताती थी और उस वक्त मै उनकी आँखो मे वो नज़ारे देख सकती थी।
लेकिन इसके बावजुद दादी बेटे, बेटी के सीमा रेखा को पाट नही सकी और ना ही पोते-पोती की सीमा रेखा को, मै कभी कभी इसपर उनसे पुछा करती थी कि दादी आपको नही लगता, कि आप कुछ कमी कर रही हैं, तो उनका जवाब होता था, क्या करूँ समाज का यही दस्तुर है।
मुझे यह जवाब कभी पसन्द नही आया, आखिर ये कैसा दस्तुर है? जो खुद को ही समझ से परे रखने पर मजबुर करता है, जो खुद को भूलजाने पर मजबुर करता है। लोग कहते हैं "बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेहूँ" अर्रे बीती को भुलने से काम नही चलेगा, उसे अपने पास धरोहर की तरह रखना चाहिये, ताकि आगे वो पिछला अनुभव काम आये।
हमारे समाज मे यही गड़बड़ है... हम अपने उन कटु अनुभवो को याद करके रोते तो हैं, पर आगे ऐसा ना हो इसका प्रयत्न नही करते।
हम "मै" कि खोज मे रहते हैं, पर एक तरफ समाज के बीच उस "मै" से किनारा कर लेते हैं।
विशेषकर यह बात लड़कियो के लिये लागु होती है, एक पीढ़ी दुसरी पीढ़ी को अपने "मै" के खोज मे आगे नही बढ़ने नही देती, उन्हे हमेशा ना जाने किस समाज का भय खाये रहता है, वो भूल जाती हैं कि, जिस समाज मे "मै"(अस्तित्व) ना हो उसके साथ जीना ही कितना आधारविहीन है, और फिर कोई "मै" इस समाज को मानने से इंकार कर देता है तो उसे आसामाजिक तत्व का तगमा दे दिया जाता है या पतित कह दिया जाता है।

हाँ पर मुझे कहना पड़ेगा तुम्हारी नज़र मे मै पतित ही सही, पर मैने आज जब अपने अस्तित्व को पहचाना है तो मुझे तुमसी बनने की चाहत भी नही रही, बैठी रहो किसी के लिये सामाजिक बनने कि चाहत मे, "मै तो" आज खुद के लिये जीना चाहती हूँ।
ताकि आज मै कह सकूँ कि "हाँ यह जो मै हूँ वो किसी समाज की धरोहर नही, बल्कि मै खुद एक नये समाज के सृजन मे प्रयत्नरत हूँ, मै वो अस्तित्व हूँ, जो मुझसी होकर जीना चाहती हूँ, इस गगन को अपने पंखो से नापना चाहती हूँ, इस दुनिय को अपने रस्मो-कवायदो के अनुसार देखना चाहती हूँ, मेरे अन्दर किसी और सी बनने की ललक नही है, ना हि मै चाहूँगी कि "तुम" मुझसी बनी, "तुम"भी तो एक अस्तित्व हो मेरी तरह ही, जाओ तुम भी अपनी एक दुनिया बनाओ।"