बुधवार, 31 दिसंबर 2008

अस्तित्व

मै अपनी छोटी बहन के काफी नजदीक हूँ, घर से लेकर बाहर तक होने वाली सारी समस्यायो को बाँटती रहती है, ये समझिये कि सोने के पहले का मेरा नियम है कि कम से कम १ घण्टे वो मुझे टेप रिकार्डर की तरह पुरा किस्सा सुनाती है, साथ मे वो अपने स्कुल की वाईस कैप्टन भी है तो सारी लड़कियों की समस्यायें भी सुनाती रहती है। उसकी सारी सहेलियाँ भी मुझसे काफी जुड़ी है... (बस अब अपनी तारीफ नहीं)...
मेरा मकसद अपनी तारीफ नही... कुछ कहना है... इन दिनो नारी, चोखेर बाली ब्लाग पर कुछ गहमा-गहमी है... रेगुलर नही देख पा रही पर समझ मे जो आया है कुछ ऐसा है कि... एक बार फिर हमारे अस्तित्व को किसी ने ललकारा है... अब ये गहमा गहमी सिर्फ किसी ब्लॉग विशेष के लिये नही बल्कि हमारे अस्तित्व के लिये है... वो चाहे ब्लॉग हो य सड़क पर चलता हुआ जीवन... चाहे घर की चारदीवारी मे रहता हुआ जीवन... चाहे बन्द मुट्ठी मे मिटता हुआ जीवन...
ऐसे सवाल उठते रहते हैं... कोई अपना आक्रोश प्रकट कर पाता है और कोई अन्दर ही अन्दर जलता रहता है...
मेरे पास जब ऐसे सवाल आते हैं तो मेरा जवाब होता है... दो ही रास्ते हैं... या तो उसे अपनी नियति मान लो.. या फिर इतनी आग पैदा करो कि तुम्हारे अस्तित्व पर किसी भी तरह का सवाल उठाने की कोई हिम्मत भी न रख सके...
ऐसा क्यों कि पुरूष जो चाहे उसका अधिकार है... और हम... हमारी इच्छा उसके अनुसार हो
पुरूष सर्व शक्तिमान और हम उसके कमेंट्स सुनने उसके ज्यादती सहने के मजबूर हो
ये नही होना चाहिये... और इसके लिये जब लड़ो तो वाकई मे लड़ो... फिर भूल जाओ कोई बन्धन... हम सिर्फ एक शरीर हैं?... अगर हाँ तो फिर कोई सवाल ही नही उठता, अगर नहीं... तो फिर हमारे किसी को अंगुली उठाने का कतई हक नही है।
हम सम्पूर्ण अस्तित्व हैं... और हमे इसे साबित करने की जरूरत नही है... तुम जानते हो... और इसलिये अपने अस्तित्व को बचाने के लिये हमारे ऊपर समाज, रिश्तेदार, सभ्यता इत्यादि दोहरे मापदंडो की सीमा डाल दी है। पर हम लड़ेंगे अपने अस्तित्व के लिये अपने हक के लिये, सामने चाहे जो कोई भी आये... वो कोई भी हो... हम लड़ेंगे...
फिर हम किसी सभ्यता समाज नियम कानुन की परवाह नही करेंगे... अपने हक के लिये अर्जून ने अपने रिश्तेदारो के प्रति गाण्डीव उठाया तो वो धर्म कहलाया.. तो हमारा कदम अधर्म कैसे हो गया?
आगे की बात.. सिर्फ लड़ेंगे कहने से बात नही बनने वाली... मै यही कहती हूँ.. लड़ो... बिना किसी झिझक के लड़ो... बिना किसी डर के लड़ो... जब जंग अपने अस्तित्व को स्थापित करने के लिये हो तो फिर तुम्हारे कदम नही रूकने चाहिये... किसी भी परिस्थिती मे नहीं... कैसा डर... बात शरीर की नही... बात सिर्फ आत्मा की भी नही.. बात है इनके मेल से बने अस्तित्व की... जिसके लिये हम जी रहे हैं. जिसके कारण हम है... फिर उसपर जब कोई सवाल उठता है तो लड़ने मे डर कैसा.... अगर आज हम नही लड़े तो हमारी आने वाली पीढीयाँ इसी आक्रोश की शिकार होंगी... मै नही चाहती कि मेरी आने वाली पीढी़ को सिर्फ इसलिये चुप रहना पड़े क्योंकि वो बेटी है... मै लड़ूँगी अपने अस्तित्व के लिये... और उस आगंतुक अस्तित्व के लिये... हमारे अस्तित्व के लिये... जिसको जो समझना है समझे...

शनिवार, 18 अक्तूबर 2008

करवा चौथ पर मेरे विचार

कल रात करवाचौथ पर बहुतों ने अपने विचार दिये, मेरे विचार जानने हेतु क्लिक कीजिए। नामक पोस्ट जीवन ऊर्जा पर पोस्ट हो गयी थी... उसे चिकित्सा सम्बन्धी ही बनाये रखन है इसलिये उसे यहाँ ट्रान्सफर कर रही हूँ।

शुक्रिया :)


सत्यवती जी मेरे विचार को पसन्द करने के लिये शुक्रिया :)

बुधवार, 10 सितंबर 2008

लौट आओ

लौट आओ कि अंधरी ये रात हुई
अब तक खफ़ा हो, ये क्या बात हुई

चुपके से किसी तन्हा सी घड़ी में
याद आती है, थी जो मुलाकात हुई

सालती है दर्द-ए-दिल को ये खा़मोशी
आवाज दो कि अब ये ज़र्द रात हुई

कहो कैसे जिये" गरिमा" तुम्हारे बिना
तुम बिन अन्धेरी ये कायनात हुई

नहीं लौट सकते तो मत आओ
इतना बता दो इस बेरुखी की क्या बात हुई

मंगलवार, 26 अगस्त 2008

सुबह की सैर और दिव्य अनुभुति

सुबह-सुबह वॉक पर निकली इस बात को नजर अन्दाज करते हुई कि, की बाहर बारिश हो रही है। वैसे बारिश की आवाज मानो संगीत.. कानो मे अमृत घोल रही थी, और मै जान-बूझकर घर मे किसी को जगाये बिना निकल पडी, एक तो अभी ही एलर्जी ठीक हुई ( अगर घर में किसी को पता चल गया) तो कोई जाने नही देगा। बाहर रास्ते पर कोई भी नही दिख रहा था, पर मुझे तो जैसे बारिश की धार आकृष्ट कर रही थीं, रास्ता अकेला हो तो अमूमन मै आसपास ही चहलकदमी कर लेती हूँ, पर उमडती-घुमडती घटाओं के साथ, सीमा याद नही रख सकी और निकल पडी उन गलियों मे जिधर अक्सर चिड़ियों को देखने उनके कलरव के आनन्द मे डूबने के लिये निकल पडती हूँ, और कारण भी यही है कि मुझे सुबह आकर्षित करती है। वरना गहरी नींद मे सोने से बेहतर वॉक पर जाना... ऐसा जैसे कि चॉकलेट से बेहतर गुड समझना... ।
बारिश धीमी नही थी, तेज भी नही थी, आनंदमग्न होने के लिये बढिया थी... भीगते वक्त याद आने लगी कुछ पुरानी बातें, उन दिनो मे सुबह बारिश हो जाये तो मुसीबत आ जाती, स्कूल कैसे जायें? भीगने का डर नही होता, बल्कि घुटने तक कीचड़ साईकिल के पहियो का जमने का डर सालता.. और इसी डर के साथ निकल जाते.. स्कूल पहूँचते पहूँचते तो चिडियाघर से भागे बन्दर तो दिखती ही मै( ऐसे भी कोई अच्छी नही दिखती) अब वापसी मे प्रार्थना की जाती की हे भगवान बारिश ना थमे... इसका फायदा होगा कि साईकिल को अलग से धोना नही पडेगा... आप से आप धुल जायेगी (बचपन की आलसी जो ठहरी) वैसे उधर कोटा की अपेक्षा ज्यादा बारिश होती है, और गाँव मे तो पक्की सड़कें भी नही हैं, कच्ची सडको पर कीचड लगना आम बात है... यही नहीं.. कपडे धुल जायें तो सूखेंगे कैसे? वाशिंग-मशीन भी तो नहीं है, और होता भी तो बिजली के बिना; बिना सर पैर का सिपाही होता... खैर

... और याद आने लगा कि कैसे मम्मी कुछ सूखी-भीगे लकड़ियों से चुल्हा जलाने की कोशिश करती रहती... और दादा जी परेशान होते मम्मी की परेशानी देखकर... पर वो भी क्या करते? बारिश मे सब कुछ भीग ही जाता... और मेरी गाय.. जिसका बहुत प्यार से मैने नाम रखा था सुमन.. एक ही खूँटे पर बँधी-बँधी परेशान हो जाती, उसे एक जगह पर स्थित होना अच्छा नही लगता था... बहुत सीधी सी थी वो.. पर बारिश मे वो बहत परेशान होती... दूसरे खूँटे तक आने के लिये रँभाती रहती... पर हम भी बेबस थे...और एक बारिश मे उसने जाने कैसे.. रस्सी तोड ली... भागी बाहर... बाहर गिर पडी फिर फिर कभी ना उठी.... उसके बाद दूसरी गाय आयी... पर सुमन की जगह कोई नही ले सका.. सुमन की याद आते ही पिछली यादो से रिश्ता टूट गया.. वैसे जुड़ना चाहिये था.. पर टूट गया, कारण कि मेरे सामने वैसी ही एक धवल गाय रंभाते खडी थी... मै सोच रही थी कि काश ये मेरी सुमन होती... मै थोडी देर खडी रहे... मेरे सुमन होती तो दौडकर आती और मुझे चाटना शुरू करती.. यथार्थ कल्पना पर हावी हो गया... तब समझ मे आया कि मै ज्यादा भीग ली लौटना चाहिये..

पर दुख: मूल नही होता... और मन स्थिर नही होता... मन चल पडा... नये अनुभव की तरफ शायद कुछ ज्यादा ही भीग ली, अन्तःकरण से अपने ही अहसासों मे काफी बदलाव महसूस कर रही थी, बारिश मे धुल रहे पेड पौधे मुझे बहुत प्यारे लगते हैं, और आज तो जैसे हर डाली मुझे अपनी सी लग रही थी... इनके साथ जैसे अपने अन्दर भी कुछ अलग अनुभव हो रहा था... अपनी ही धडकनो को सुन रही थी... आनंद के सरोवर मे जैसे हिलोरे लेने लगी (हाँ असली नदी में तो नही उतरती तैरना नही आता :P)... और साथ मे मेरे डालियों पर झूमती पत्तियाँ, बहती धार की रूनझून, त्वचा को छूकर निकलती बूंदे पलको पर ठहरती बूंदे , एक जगह टिक कर इन सबके आनन्द मे मग्न, तभी नजर पडी, उस पेड पर जहाँ तोतें बारिश मे एक डाली से दूसरे पर चहलकदमी कर रहे थे|

तभी अचानक फिर से यथार्थ मे लौटी, अरे मैं यहाँ कैसे आ गयी.. मै तो लौट रही थी.. आसपास ध्यान दिया तो ध्यान मे आया कि इसी गली मे मोर मोरनी भी दिख जाते हैं, मोर याद आते ही, पंख फैलाये मोर की छवि भी आँखो के सामने तिर आयी... और ज्यादा नही ढूँढना पडा, युगल दिख ही गये, नाचता मोर, मोर के साथ मोरनी, मोर एक ही था, और साथ ४ मोरनी, और देखते ही देखते, विचार कहाँ से कहाँ परिवर्तित हुए, एक मोर जैसे कृष्णा की तरह बीच मे बंसी थामे, और इर्द-गिर्द गोपियाँ राधा संग नृत्य कर रही हों, फिर विचार पलटे, अरे ये क्या ये तो मोर है, कृष्णा थोडी ना है, फिर कान्हा तो बंसी बजाते थे, नाचने का काम गोपियों का था, ये मोर तो नाच रहा है.. फिर ध्यान आया कि कल तो कान्हा का जन्मदिन था, जन्माष्टमी, गाँव पर होती तो दादी डाँट-डपटकर व्रत करने के लिये तैयार करवा हीं देती मुझको, लेकिन अभी कितना अच्छा है, मैने तो जन्मदिन पर मिठाई खाई... आखिर किसी को तो अच्छे से सेलिब्रेट करना चाहिये, और मन ही मन सोच मुस्कुरा उठी.. फिर लगा कि.. अरे ये सही था कि गलत वो तो कान्हा ही बता सकते है... और फिर तलाश हुई कान्हा कि कान्हा ओ कान्हा...

मोर मुकुट पीताम्बर धारी
तुम तो हो घट-घट मे व्यापी
मेरी अखियाँ दरस को प्यासी

कहाँ मिलोगे हे गिरधारी
ना मै मीरा, ना मै राधा
ना मै जोगन, ना मै दासी
जानू ना मै प्रीत भी साची
ना ही मुझको भक्ति ही आती

गरज बरस के बरसे बदरीया
इत-उत ढूँढू तोके साँवरिया
सोचूँ और फिर खुद पर हँस लूँ
बन के झूमूं मै तो बावरियाँ

ये नही गोकुल, ना ही वृन्दावन
कहां मिलोगे, ओ मेरे मनमोहन
ना मै मीरा, ना मै राधा
क्या दोगे फिर भी तुम दरसन
क्या दोगे मुझको भी दरसन

शायद और कुछ भी सोचा हो... (गाया नही..) खाली पीली मे लोगो की अच्छी नींद उड जाती... हाँ पर रास्ते पर गुनगुनाने का पहला अवसर था... शायद बारिश की बूँदो और कान्हा की तलाश ने शराफत (लाज) का वो पर्दा उडा दिया... होश मे जाने कब आयी... याद नही आ रहा है... घर आने के बाद भी वो मस्ती रही... दैनिक काम मे ... आदतन लगी रही.. लेकिन वाकई जो मस्ती वही रही, वो जा नही रही थी... लेकिन वक्त बहुत रहम है... धीरे धीरे वो अहसास ऐसी याद मे परिवर्तित होता जा रहा है, जिसे याद तो किया जा सकता है, पर ना जिसकी अभिव्यक्ति संभव हो पा रही है...ना जिसका अनुभव हो पा रहा है... कुछ बेचैनी सी छायी है... आलम यह है कि खुद को नही समझ मे आ रहा है कि क्या चाहिये... कुछ भी समझ मे नही आ रहा है... बार बार याद कर रही हूँ, बरसता मौसम, बारिश की छम-छम, मोर का नाच, तोतों की चहलकदमी, धुली पत्तियाँ... पर वो सब कुछ ऐसा ही है कि मानो फिल्म चल रही है, पर मौसम की बहार से मन अछूता है... काश ऐसी सुबह फिर से आये.. और उस दशा को मै फिर से प्राप्त होऊँ :)

बुधवार, 30 जुलाई 2008

क्या आप सफल अभिभावक हैं?

हालाँकि यह सवाल पूछने या जवाब बताने का मेरा कोई हक नही बनता, मै खुद को अभी ३ साल से बडा नही मानती, कारण कि कई बार मेरा भाई जो कि अभी ५ साल का है, ऐसी बातें बोलता है, जिन्हे सुनकर खुद को लगेगा कि इसके आगे तो अपनी सोच की कोई हैसियत ही नही है!

कई बार मेरी बहने भी मुझे गुरू की जगह दिख जाती है, और लल्ली से आप परिचित ही हैं, इनके सामने खुद को बडा़ मानना...

फिर भी अक्सर मुझे लगता है कि जिस दौर से मै गुजर रही हूँ, वो अभिभावक और बचपन के बीच की कडी है, जहाँ मै खुद भी सीख रही हूँ, और दूसरों को सिखा भी रही हूँ।
इस तरह सोचने के कई कारण हो सकते हैं.. मै कारण बताने के पीछे ना जाकर, सीधे अपनी बात पर आ रही हूँ।

मेरे पास अक्सर ऐसे लोग आते हैं, जो अपने बच्चे के भविष्य के लिये व्यथित हैं, चिंतित हैं, अब ये तो अच्छी बात है, पर कभी कभी यह चिन्ता इतनी ज्यादा होती है कि उस बच्चे का जीना ही मुश्किल हो जाता है।
कई ऐसे उदाहरण मेरे सामने आते हैं, हँसता खेलता बच्चा किसी मानसिक बीमारी का शिकार हो जाता है, अच्छा सा बच्चा उदण्ड हो जाता है, मेधावी बच्चा पढने से डर जाता है, खेलकूद मे आगे रहने वाला बच्चा अपने आपको एक कमरे बंद कर लेता है, और भी ना जाने कितने तरह से परेशान होता है बचपन, और जब यही बचपन आगे बढता है तो इसके इतने उल्टे-सीधे परिणाम निकलते हैं, जिसकी तरफ़ सोचा भी नही जा सकता।
आप माने या ना माने, इसमे सबसे ज्यादा गलती अभिभावक की ही होती है, बाकी की कसर शिक्षक और दूसरे लोग पूरा कर देते हैं। ऐसे मे आप चिल्लाते रहिये कि आज की युवा-पीढी़ भटक गयी है, आज ये आज वो।ये तो होना ही है, जब बीज ही सही ढंग से नही डाला जायेगा तो बढिया फसल के लिये आशा रखना व्यर्थ ही है।

कई बार देखा है कि जो अभिभावक अपने कुछ सपने/अरमान पूरा नही कर पाये होते हैं, वो अपने बच्चो से उम्मीद रखते हैं कि बच्चा वो सपना पूरा करे। यह गलत नही है, आपका हक बनता है, परन्तु आपका बच्चा भी एक अलग व्यक्तित्व का मालिक है, उसके भी कुछ अपने सपने हैं, कुछ अलग गुणवत्ता है, जो बचपन से जग-जाहिर होने ही लगती है।
मसलन कुछ बच्चे पढा़कू होते हैं, उसमे भी किसी विषय मे उनको बहुत ज्यादा रूचि होती है तो किसी विषय मे बहूत कम; ठीक इसके उल्टे कुछ बच्चो को किताब नाम से ही डर लगता है, पढना तो दूर की बात है।
सिर्फ इतना ही नही यह बिल्कुल जरूरी नही कि आपको जे चीज पसन्द नही वो वो आपके बच्चे को भी नही पसंद हो। आखिर उसे भी अपनी पसन्द ना पसन्द से जीने का हक है। सिर्फ आपकी ही निजी जिन्दगी नही है, बल्कि उस बच्चे की भी है। इसलिये जरूरी बनता है कि, आप उसके व्यक्तित्व को समझे जाने, अगर बच्चे के भविष्य को सही रूप-रेखा देना आपकी जिम्मेदारी है तो उसके साथ ही, उसका व्यक्तित्व विकसित हो यह भी आपकी ही जिम्मेदारी है
और यह तभी हो सकेगा जब आप उसे खिलने को पूरा मौका दें, जब आप उसके पथ प्रदर्शक बने ना कि, अपने साथ अपने रास्ते पर चलने पर मजबूर करें।
आप आदर्शवादी हैं तो यह बिल्कुल जरूरी नही कि वो भी आदर्शवादी ही होगा, और अगर आपका आदर्श उससे उसका बचपन छीन रहा है फ़िर तो वो किसी भी सूरत मे आदर्शवादी नही बनेगा, फिर वो जो बनेगा/बन सकता है, उसका अन्दाजा लगाना भी मुश्किल है।

कुछ दिन पहले आगरा से प्रतिष्‍ठित परिवार से मेरी बात हुई, वो बहुत परेशान थे, उनका इकलौटा बेटा जो कि मात्र १५ साल का था, गलत संगति मे पड गया, हर तरह से उन्होने उसे समझाने की कोशिश की पर वो नही सुधरा। कितने ही मनोचिकित्सक को दिखलाया गया, कितनी ही काउँसलिंग हूई पर सब बेअसर। जब मेरे सम्पर्क मे लोग आये तो उन्हे किसी ने बताया था कि वह किसी प्रेत-बाधा से ग्रसित है। जब मैने उस लडके से बात की तो एक बात पता चली कि, उसके अन्दर इतना आक्रोश भरा हुआ था, अपने मम्मी पापा को सिर्फ़ उनको तंग करने के लिये वो सारी गलत हरकते करता था, बाद मे उसको आदत बन गयी।
उसे बिल्कुल परवाह नही थी कि लोग क्या कहते हैं, बल्कि उसे मजा आता जब लोग ये कहते कि बेचारे शर्मा जी (काल्पनिक नाम) एक ही औलाद है और ऐसी निकली, खुद तो आदर्श के प्रतिमूर्ती हैं और जब शर्मा जी को यह सब सूनकर रोना आता तो उसको मजा आता।
ऐसे ही मुझे एक केस मिला था, लडकी इतना पढती थी कि वो पढना ही उसके पागल होने का कारण बन गया था, वो तब भी यही कहती, पापा मै आपको जरूर दिखाऊँगी कि मै भी कुछ कर सकती हूँ, हर वक्त की एक ही रट, और किताबे तो जैसे वो खुद ही। आदि से अन्त तक उसे सब जबानी याद था।
दूर ना जाकर एकदम आज की बात कर रही हूँ, मै अपने भाई को स्कूल से ला रही थी, भाई के साथ एक और बच्चा निकला, वो बेचारा डरा सहमा सा, उसकी मम्मी उसे लेने आई हुई थी, मम्मी को देखते ही वो और ही सहम गया।
रास्ते मे भाई बताते आया कि दीदी ये सौरभ है, ये ना दौडने मे तेज है पर उसकी मम्मी उसे हमेशा पढाई पढाई करके डाँटती रहती हैं ना, इसलिये वो हमेशा डरा रहता है, और आज ना वो बीमार पड गया था।
कुछ देर की शान्ति के बात गौरव ने कहा झुको,
क्यों?
मुझे ना आपको कुछ देना है।
तो दो ना।
ना पहले झुको। और उसने मुझे गले लगा लिया।
अरे बस बस घर पर नही है हम, रास्ते मे हैं, बीच रास्ते मे खडे नही होते कोई गाडी टक्कर दे सकती है।
दीदी, ये इसलिये था क्योंकि मै भी तो नही पढता था, पर आप सौरभ की मम्मी की तरह मुझे नही डाँटती थी, तो मेरा प्यार आज आपके लिये १००० हो गया। ( ये उसका अपना तरीका है, अपना प्यार दिखाने के लिये, १००० सबसे ज्यादा और ० सबसे कम)
अच्छा बेटा तो फ़िर तुमने पढना क्यों शुरू कर दिया?
वो इसलिये क्योंकि आप मुझे मेरे मन का काम करने देती हो, तो मेरा भी फर्ज बनता है ना कि मै आपके मन का काम करूँ। :) ध्यान दिजिये कि मेरा भाई अभी क्लास १ मे है, और कोई आकाश से उतरा हूआ फरिश्ता भी नही है, आपके बच्चो के जैसा ही एक सामान्य सा बच्चा है। जब उसकी सोच इस तरह से हो सकती है तो मुझे लगता है कि सभी बच्चो की सोच ऐसी हो सकती है। जरूरत है सही तरीके से देख रेख की।

इस पर अभी बहुत कुछ कहना है.. पर अगली कडी मे.. और हाँ अभिभावक गण मुझे माफ करें, मुझे कोई हक नही बनता किसी को चोट थ पहुँचाने का, पर मुझे लगा कि किसी ना किसी को तो इस पर बात करनी चाहिये.. तभी कोई सही रास्ता निकल कर आ सकता है, और जितनी भी महिलायें मेरे लेख को पढ रही हों, प्लीज मुझे ये मत सुनाना कि "जब तुम माँ बनोगी तब समझ मे आयेगा कि बच्चे को कैसे सम्भालते हैं" जो कुछ भी शिकायत होगी मै सूनूँगी पर पूरी बात खत्म होने के बाद।

तो मिलते हैं अगली कडी़ मे।

रविवार, 27 जुलाई 2008

अब नही तो कब?

लगातार हो रहे विस्फोटो से मन विचलित है, और कही ना कही कुछ न कर पाने कि स्थिती भी दर्द को बढावा देने मे सहयोगी बन रही है, पर मेरा ऊर्जा चिकित्सक दोस्तो से निवेदन है कि कम से कम हम इस दर्द के शिकंजे मे रहकर न जीये। चाहे आप अल्फ़ा हीलर हो, रेकी मास्टर हो या किसी भी अन्य तकनीक से हो, अगर आप दुरस्थ ऊर्जा चिकित्सा कर सकते हैं तो फिर आप कुछ तो कर ही सकते हैं।
वैसे तो यह एक नियम है कि बिना मरीज से पूछे उसका इलाज नही किया जा सकता, पर आपातकाल मे यह नियम लागू नही होता है।
वैसे मै जानती हूँ कि कई मित्र इस दिशा के तरफ अग्रसर होंगे, पर हम ये भी जानते हैं कि अकेले अकेले लडने की बजाय अगर एक साथ ऊर्जा किरणे प्रवाहित की जाये तो, वो ज्यादा काम करती है। मै चाहती हूँ कि (यकिनन आप भी चाहते होंगे) हम इस दिशा मे एक जूट होकर कुछ कर सके, अस्पताल मे डॉक्टर्स अपना काम कर रहे हैं, कम से कम हम अपने घर मे बैठे इतना तो कर ही सकते हैं, कौन जाने कि हमारी जिन्दगी से निकाले गये ये चन्द घंटे, कितनो कि जिन्दगी बचाने मे सफल हो जाये।
आप जहाँ भी है, जिस क्षेत्र मे भी है, अपने आसपास के ऊर्जा चिकित्सको की मदद लिजीये, अपने दोस्तो को एकत्रित किजिये, और अगर आप ऊर्जा चिकित्सक नही भी हैं तो भी दूसरो तक ये बात ले जाईये, साथ दिजिये उनका, जिनक सबकुछ मिटने वाला है।
कुछ देर व्यवसाय की जिन्दगी से दूर जिन्दगी के नाम करने का संकल्प लिजिये तभी वास्तव मे हमे खूद पर यकिन होगा कि वास्तव मे हम अभी इंसान हैं, संवेदनायें सिर्फ़ दिखाने के लिये नही कुछ कर दिखाने के लिये अभी जागृत हैं।
दोस्तो यह पोस्ट पढकर कॉमेन्ट देने के लिये नही, शक्ति जागृत करने के लिये पढी जाये तो दिल से खूशी होगी।

आपकी गरिमा

शुक्रवार, 25 जुलाई 2008

अच्छा क्या है? बुरा क्या है?

काफी दिनो से एक ही तरह के सवाल जवाब चल रहे हैं आजकल, मुझे लग रहा है कि बच्चे(भाई-बहन) बडे हो रहे हैं, खासकर मेरा भाई जो कि क्लास १ मे पढ रहा है, रोज आकर कोई एक विषय पर बात होती है, पूरे कहानी मे एक ही सवाल उठता है कि "अच्छा किसे कहते हैं, बूराई की परिभाषा क्या है"?
उससे बात करते करते शायद मै खूद को भी समझा रही हूँ कि अच्छा क्या है बूरा क्या है? क्योंकि अगर कोई ऐसा जवाब दे दिया जो व्यवहारिक रूप से मान्य हो ही नही पाये तो ऐसे जवाब का क्या मतलब रह जायेगा? और टालने के लिये मै कोई सा भी जवाब देना कभी पसन्द नही करती हूँ।
एक दिन वो मुझसे खूद ही बोल पडा दीदी.. आप बताओ, क्रोध, अहंकार यह सब गंदे हैं?
मैने कहा कि हा बेटा यह सब ठीक नही, गुस्से मे आकर आप कोई काम ठीक से नही कर पाते और जो लोग घमंडी होते हैं उन्हे कोई पसन्द नही करता। उसने जवाब सूना फ़िर खेलने लग गया, थोडी देर मे ही उल्टी सीधी हरकते करने लगा, इतना की अब मुझे गुस्सा आ ही गया, और मैने डाँतते हूए कहा कि ऐसे काम नही करने चाहिये, आदत गंदी होती है।
सबको परेशानी हो सकती है। इस पर वो बोल पडा मतलब कि अभी आप गुस्से मे हो? मैने कहाँ कि हाँ, अभी गुस्से मे हूँ, अगर ऐसे ही छोड दूँगी तो तुम्हे समझ मे कैसे आयेगा कि गलत क्या है सही क्या है? फ़िर वो हँस पडा, अभी तो आपने कहा है कि, गुस्सा अच्छी बात नही है!!!
मै चुप थी.. तो वो ही बोला... मुझे पता है... कोई भी आदत गलत या सही नही होती, गलत और सही वक्त होता है, और वक्त की माँग होती है। क्लास १ के बच्चे के मूँह से ये बात सुनना अजीब सा लग सकता है, पर उसके मूँह से सुनना कभी अजीब सा नही लगा, रहरहकर वो जाने किस दुनिया से बोलता है। खैर मुझे अपनी गलती समझ मे आयी और मैने उससे माफ़ी भी मांग लिय और ध्यान रखा कि आगे से बोलूँ सोचसमझ कर ही बोलूँ।

जवाब देने के पहले खूद को वहाँ खडा रखकर देखना ही पडेगा।
ऐसे कई सारे सवाल-जवाब हैं जो हम भाई बहनो के बीच चलते रहते हैं, उ़सी मे एक और सवाल जुडता है... हिंसा और अहिंसा मे कितना फर्क है?
इसी पर अधारित लेख है ज्ञानदत्त जी का। सुबह सुबह ये लेख पढा तो मेरे दिमाग मे भी इस विषय पर लिखने के लिये कुलबुलाहट मच गयी, उसी तर्ज पर यह लेख लिख रही हूँ।
वह पूरा लेख ही विचारपूर्ण है, लेख वही पढिये नही तो मुझे पूरी के पूरी सामग्री यहाँ चिपकानी पडेगी।

वास्तव मे अहिंसा और हिंसा के क्या फर्क है? समझना समझाना बहूत मुश्किल है। मेरी दादी यहाँ आती हैं तो हम रोज ही पागल हो जाते हैं, मच्छर नही मारने देती, और तो और खिडकियाँ खोल देती हैं "भाग जा लो भगवान जी, ना त ई तहरा के मार दिह स" भाग जाओ भगवान जी वरना ये तुमको मार देंगी, उल्टे होता ये है कि अंदर के मच्छर बाहर तो जाते नही कुछ और आ जाते हैं, और हम हँसते है कि ईया भगवान जी के हमनी के हाथे वैकुंठ जाये के मन करत बा, भगवान जी को हमारे हाथ वैकुंठ जाने का मन कर रहा है।
और आजकल तो जबसे मच्छरो को मारने का रैकेट आया है, अपने हाथो से मार देते हैं, मेरी दादी को मच्छरो को को भी मारना अपराध बोध से ग्रसित कर देता था.. वो उदास हो जाती थी... और आज तक मुझे उदासी नही आयी। और वहीं उनके कई ऐसे काम होते हैं, जिनसे हमको अपराधबोध लगता है पर, उन्हे लगता है कि ये समाज की माँग है खैर।

ज्ञानदत्त जी पुछते हैं कि "हत्या का अपराधबोध किस स्तर से शुरू होत है" ?
इसका जवाब बहूत ही मुश्किल है, मेरा एक दोस्त जो हाल ही मे किसी मुजरिम को पकड के आया था, वो बता रहा था कि जिस मुजरिम को पकडा गया है, वो अभी मात्र १८ साल का है और उसने ३ लोगो को आराम से मार दिया, पूछताछ पर बताया उसने कि उसने सिर्फ़ ये देखने के बाद मारा कि मारने के बाद कैसा लगता है?
मेरा दोस्त बहूत उदास होकर बता रहा था कि गरिमा उसके चेहरे पर थोडा भी गम नही था, वो लडका बडे आराम से अपना किस्सा सुना रहा था, वो बहूत रोमांचित था.....

उस लडके को अंत तक अपराध बोध नही हूआ! क्यों?

ओशो कहते हैं "जो काम आपको आपके दिल को सुकून पहुँचाये सो शुभ है, और जो काम आपके सुकून मे बाधक है, वो अशुभ है" पर अब इस लडके के बारे मे क्या कहते ओशो?
जिसने ३ लोगो को सिर्फ़ रोमांच के लिये बेरहमी से मार डाला और उसे बहूत मजा आया.. क्या यह भी शुभ था?

मेरे सहेली के दादा जी, उनको भी मेरी दादी की तरह मच्छर मक्खी मारने से परहेज है, पर किसी को कैसे रूलाते हैं? उनसे अच्छा भला कौन जान सकता है? क्या किसी के आँसू को देखकर उनके दिल मे सूकुन मिलता होगा? और अगर हाँ तो कैसे?

"मुनि अहिंसा को मुंह पर सफेद पट्टी बांध एक एक्स्ट्रीम पर ले जाते हैं। मुन्ना बजरंगी या अल केपोने जैसे शार्प शूटर उसे दूसरे एक्स्ट्रीम पर। सामान्य स्तर क्या है?" ज्ञानदत्त जी कहते हैं।

बिल्कुल सही बोलते हैं। दोनो ही एक्स्ट्रीम पर हैं, और इसलिये दोनो ही अशुभ हैं? क्योंकि दोनो ने ही जीवन से अपना मूँह मोड लिया है, एक जीव को इतना बचा रहा है कि अच्छे बूरे का फ़र्क ही भूल गया, कोई विषैला हो सकता है, जन जाति को परेशान कर सकता है, इस बात से उनको कोई फ़र्क नही पडता। वो भी एक तरह से विनाश के कगार पर खडे हैं। ठीक कुछ ऐसे की पूलिस चोर को बोल रहा है कि मै आँखे बन्द कर लेता हूँ तुम चोरी कर लो!!!

दुसरा लोगो का अपने हाथो ही विनाश कर रहा है।

अन्तर क्या है दोनो मे? मुझे तो कुछ नही लगता।

अब "सामान्य स्तर की बात" ओशो कहते हैं कि ये जीवन बीणा के तार की तरह है, जैसे की बीणा का तार अगर बहूत ढीला हो तो भी स्वर लहरी नही निकलेगी, और कडक होने पर भी नही।
स्वर निकलने के लिये तार का सही समन्वय होना जरूरी है। खैर मै बीणा के बारे मे नही जानती, पर इतना समझ मे आ रहा है कि उन्होने जो कहा वो एकदम सही कहा, मेरे चाचा जी ढोलक के ताल को ठीक करने के लिये पेंच को बारबार सही स्थिती मे ले जाते थे।

अब मै अपने शब्दो मे कहूँ तो शुभ वो है जिससे किसी का जीना आसान हो जाये और खूद को भी तकलीफ ना हो, और अशुभ वो है जिसके कारण कई लोग तकलीफ मे आ जायें।
यह परिभाषा मुझे सही लगती है।
मच्छर को मारना अपने मजबूरी है, नही मारेंगे तो वो हमे मार डालेंगे, आतंकवादी को मारना मजबूरी है, नही मारो तो हमे मार डालेंगे।
पर किसी ऐसे शक्स के आँखो मे आँसू भर ला देना, जिससे समाज कोई खतरा नही है, वो अशुभ है, भले वो इंसान पागल ही क्यों ना हो?
किसी ऐसे का मजाक बना देना जो आप पर पलटवार करने के मे नाकाबिल हो, और वो दूखी हो जाये अशूभ है।
अपने बच्चो को खिलाने के लिये किसी और का पेट काटना अशुभ है, पर किसी ऐसे का पैसा ले लेना, जिसके कुत्ते भी राजाओ की जिन्दगी बिता रहे हैं, पूरी तरह शुभ है।

ये मेरा अपना मानना है। मुझे आज भी याद है, स्कुल मे मै दादा के नाम से जानी जाती थी, जबकि मैने कभी किसी पर गलत आरोप नही लगाया, पर हाँ उन प्रत्येक हाथो को रोकने की कोशिश की जो बेमतलब किसी का गिराहबान पकडने के लिये आतूर होते थे। मै अपनी तारीफ़ नही कर रही हूँ, बस अपने विचार व्यक्त कर रही हूँ।
मुझे हमेशा से लगता आया है कि मेरा एक झुठ अगर किसी को हँसा सकता है, नयी जान दे सकता है तो वो पूर्णतया शूभ है, और ऐसा कोई सच जो किसी को तकलीफ दे सकता है वो अशूभ है।

इस बारे मे मै हमेशा प्रैक्टिकल रही हूँ। फ़िर भी कभी कभी ये सवाल परेशान करता है कि क्या आजतक जो किया वो सही किया?

पिछले दिनो मै एक सहेली से मिली, उसकी शादी हो गयी है, पति भी साथ मे ही थे, वो बोलने लगी गरिमा ये जो हैं ना बिल्कुल तुम्हारी तरह हैं, बेमतलब का दूसरो के लिये झगडा मोल लेते हैं, उस समय तो मै कुछ नही बोली.. पर मेरे दिमाग मे चल रहा थ... क्या आजतक जो मै करती आयी हूँ, वो सब बेमलब था?
मेरी उस सहेली के लिये भी मैने कई बार लोगो से झगडा मोल लिया था... तो क्या वो भी उसके नजर मे बेमतलब का था? सवाल जब गहरायें तो मुझे आखिरकार उससे पूछना ही पडा.. वो बिल्कुल सकपका गयी.. आप समझिये उसकी सकपकाहट मेरे सवाल के लिये नही था, बल्कि इसलिये था कि कही उसके पतिदेव के सामने ये बात ना खूल जाये कि आखिर वो झगडे मैने क्यों किये थे?

खैर उसकी दशा मै समझ गयी और चूप हो गयी... और मेरे मन एक अजीब सी शांति छायी कि नही मैने सब अच्छे काम ही किये हैं और आज फ़िर से किया.. और यही शुभ है.. अगर मेरी किसी बात से उसके जिन्दगी मे कोई अनबन आ जाता तो वो अशूभ होता.... अभी इसपर सोचने को बहूत है... पर अब वक्त इजाजत माँग रहा है... मै इस विषय पर एक बार फिर से जरूर लिखूँगी तब तक आप भी अपने अपने विचार जरूर रखियेगा।

मंगलवार, 22 जुलाई 2008

लाल गुलाब


रोज की तरह आज भी उस गली से निकलते ही लल्ली दौडी दौडी आयी, दीदी आपके लिये, उसे देखकर चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट भी छा गयी, पर मैने रूठने का नाटक करते हुए कहा, लल्ली तू फ़िर से लाल गुलाब लायी, तेरे पापा डाँट लगायेंगे, वो इनका व्यापार करते हैं, बाँटने के लिये थोडी ना रखा है, लल्ली ने हँसते हुए कहा, दीदी आप लोगो को जीवन देती हैं, फिर क्या मै आपके पसंद का एक गुलाब आपको नही दे सकती?
लल्ली से बहस करना बेकार था, बच्ची है, पर, शायद कभी बडी हो भी नही पायेगी, और कहती है मै उसको जीवन दे रही हूँ, मुझे रोज उसके लाल गुलाब याद दिलाते रहते हैं कि गरिमा तू कुछ भी कर ले, इस लाल गुलाब को एक दिन मुरझाना ही पडेगा।
लल्ली थैलीसीमीया की मरीज है, थैलीसीमीया जो की एक ला- ईलाज बीमारी है, इसका ऑपरेशन हो भी सकता है पर इसके लिये ढेर सारे पैसे चाहिये, लल्ली के पापा सब्जी और फूल बेचते हैं, वो इस ऑपरेशन का खर्च कभी नही उठा पायेंगे, और कही से कर्ज लेकर लल्ली का ऑपरेशन करा भी ले, तो भी लल्ली के जिन्दा रहने की उम्मीद ना के बराबर है, जबसे मै थैलीसीमिक बच्चो पर काम कर रही हूँ, उन्हे बस इतना सा सूकुन मिल पाया है कि जिस दर्द, कमजोरी से उन्हे गुजरना पडता था, वो अब उन्हे कम होता है, या नही होता है, यानि की वो लाल गुलाब थोडी देर के खिला-खिला सा है, पर कब तक? इस कब तक ने मुझे फिर से लल्ली के सामने खडा कर दिया, ये क्या दीदी आप फिर से सोचने लगी, आपकी ये आदत अच्छी नही है, वो थोड़ी हाड़ोती और थोड़ी हिन्दी मिलाकर बोलती है, मुझे हाड़ोती समझ मे नही आती, और लल्ली को हिन्दी नही आती है, पर लल्ली मुझसे बात करने के लिये हिन्दी बोलना सीख रही है, लल्ली वास्तव मे बहुत समझदार और होशियार है, वो पढने भी जाती है और मेधावी छात्रा भी है, लल्ली कहने लगी चलो मेरे घर आपको मै अपने पेपर्स दिखलाऊँ, मुझे बहुत अच्छे मार्क्स मिले हैं, मै उसके साथ चल लेती हूँ, रास्ते मे ही घर है उसका, इसलिये कोई दिक्कत नही होगी, रास्ते मे चलते चलते मै अपने विचारो मे खो जाती हूँ, ऐसा क्यों होता है भगवान जिनको शारीरिक स्वास्थ्य नही देता उनका दिमाग तेज देता है, जो उनके लिये तकलीफ़ का सबब बन जाता है, लल्ली के लिये भी तो, वो जानती है कि कभी भी उसके दरवाजे पर मौत की दस्तक आ सकती है।
पहली बार जब मुझसे मिली थी तो उसने यही कहा था, वो पल मै कैसे भूल सकती हूँ, तब तक लल्ली फ़िर से बोल पडी दीदी, "लो आ गया मेरा घर, चलो क्या सोच रही हो, ना ना पहले ठहरो, मै जरा अपना घर देख आऊँ कि आपके देखने लायक है भी या नही", वो खुद ही बोले जा रही है, माँ तो सुबह से ही दुसरो के घर काम करने चली जाती है, बापु भी चले जाते हैं सब्जी बेचने, फ़िर मै और मेरा भाई बचते हैं, और आजकल तो मै भी बापु का हाथ बटा रही हूँ, भाई अभी छोटा है ना, और उसे तो बड़ा होकर कुछ अच्छा काम करना है, इसलिये मै ही कम कर लेती हूँ।
मै किंकर्तव्यविमूढ़ होकर उसे देख रही हूँ, जी चाहता है बोलूं कि क्यो, तुझे बड़ा नही होना है, पर हाथ मे पडा लाल गुलाब रोक रहा है, मानो वो बोल रहा है कि ये क्या पूछने जा रही हो, तुम्हे नही पता इसे भी मेरी तरह असमय मुरझा जाना है, तो मै कहती हूँ कोई बात नही लल्ली, घर कैसा भी हो घर होता है, मेरा घर भी तुम्हे बिखरा मिल जायेगा, मेरा भाई हमेशा धूम मचाता रहता है, पूरा कमरा अस्त-व्यस्त ही रहता है, तू तो मुझे अपने मार्क्स दिखा, देखूं तो मेरी लल्ली कितने मार्क्स लायी है? और वो हँसते हुए मुझे अपने घर मे ले जाती है, वास्तव मे पूरा घर अत्यन्त बिखरा हुआ है, बैठने की जगह समझ मे नही आ रही है, मै खडे खडे ही मार्क्स देख रही हूँ, लल्ली ने सारे विषयो मे अच्छा किया है, मै उसको शाबाशी दे रही हूँ, तभी लल्ली गंभीर खडी हो जाती है, मै पुछती हूँ क्या हूआ, कुछ देर बार वो बोलती है, दीदी अगले जनम मे भी मुझे शाबाशी देने आओगी? बोलो ना?
अब मै मौन थी, हाथ का लाल गुलाब मुझे चिढा रहा था, बोलो तुम्हे तो लाल गुलाब बहुत पसंद है ना, क्या तुम इस लाल गुलाब को बचा पाओगी, या फ़िर यह भी वक्त के हवाले मुरझा जायेगा।
गहन खामोशी वातावरण मे तैर जाती है, कुछ देर बाद लल्ली ही इस खामोशी को तोडती है, जाने दो दीदी मै भी क्या पूछ बैठी, आप ही तो कहती हो कि जो पल हैं उनको जी लो, जो नही है उसके लिये चिन्ता कैसी? और गीता उपदेश की तरह मुझे उपदेश दे रही है, जो होगा सो अच्छा होगा, जो नही होगा वो भी अच्छा होगा, मेरे मन मे चल रहा है, आत्मा कभी मरती नही और अजर अमर रहती है, पर लल्ली को देखकर लगता है, भले लल्ली की आत्मा अजर अमर हो पर उस अकेले आत्मा को मै नही जानती, वो आत्मा जो लल्ली के शरीर के साथ मिलकर एक जीवन बना है, उसे जानती हूँ, और एक दिन वह आत्मा तो, इस शरीर को छोडकर किसी और शरीर मे चली जायेगी, पर जीवन लल्ली का नही किसी और का होगा.... विचार तर्क पर हावी हो रहे है, आस्तिकता और नास्तिकता मे जंग चल रही है, तभी लल्ली कहती है, दीदी आपके मेडिटेशन क्लास का वक्त हो गया होगा। आप जाओ। माफ़ करना दीदी आज मेरे घर मे खाना नही बना, तो मै कुछ खिला नही सकती... और वो शर्म महसूस करती है।
मै पूछती हूँ तुने कुछ खाया, वो मौन खडी रह जाती है, मै उसे कहती हूँ बाहर चल कुछ खाते हैं, मुझे भी भूख लगी है, और मुझे अकेले अच्छा नही लगता , लल्ली हँसती है, पूरे दम के साथ हँसती है, और रोज की तरह ताली बजाकर कहती है, इसिलिये तो रोज रोज समझाती हूँ, किसी को देखकर शादी कर लो, अकेले खाना नही पडेगा, अब लल्ली कितने दिन तुम्हे खिलायेगी। मै भी रोज की अंदाज मे बोलती हूँ, हाँ मेरी दादी अम्मा तू तो बहुत होशियार है, मै ही ऐसी हूँ जो तेरी बात मेरे पल्ले नही पडती, फ़िर हम हँसते हुए बाहर आ जाते हैं।
मेडिटेशन क्लास से लौटकर, हमेशा कि तरह उस लाल गुलाब को भी किताब के पन्ने मे डाल लेती हूँ, और सोच रही हूँ, की अभी हार नही मानी, अभी मेहनत करनी है, ताकि कोई लाल गुलाब इस तरह नही मुरझाये, मुझे नही पता मेरी मेहनत कब सफ़ल होगी, पर मै पीछे नही हट सकती, इसी लाल गुलाब की कसम।

भोजपूरी कहानी के अगिला भाग

पिछलिका भाग से आगे-

अभी बाबाजी ईया अरू गुडिया खाते रहल लो कि दरवाजा पर केहु के खटखटावे के आवाज आ गईल।
बाबा , ओ बाबा घरे बानी, हेने आई नु राऊर जरूरत आ गईल बा।
आवतानी हो, तनिक रुक।
बाबाजी थारी ओसही छोडी के उठी जात बानी, हाथ धोई के बहरी गईनी, उहां के पिछे-पिछे गुडियो उठी गईली।
का भईल बा हो, काहे अतना घबराईल बाड लोग, कवन परेशानी आई गईल।
बाबा, ऊ नु राम दुलारी के बेटी के हावा लागी गईल बा।
अर्रे डॉक्टर के देखाव लो भाई, कौनो बेमारीयो हो सकेला, अईसे पहिले हवे के ना सोचे के चाही, जुग बदली गईल बा, एघरी कतना किसिम के बेमारे चलल बा। जा लो पहिले डॉक्टर के देखाव लोग, तबे हम देखबी।
(गुडिया एने ईया से पुछत लागे लि, ईया, हवा लागल माने?
हवा लागल माने कौनो आत्मा के परकोप हो गईल बा)
हाँ बाबा डॉकटर के देखा ले आईल बानी जा, लो कहल हा कि केस हाथ से जा चुकल बा, अब कुछुओ ना हो सकेला, राऊरे आसरा बा अब, रऊए कुछु क सकेनि।
हमनी के लछमियाँ के अपना सनही ले आईल बानी जा, देखी ना।
पिछे से कुछु लो, एगो लईकी के लेके खडा हो गईल, बाबा हाथ के इशारा से ओकरा के सामने के बिस्तर पर सुतावे के इसारा कई के, खुदुए कुछु कुस और कुछु ताबीज ले आवे कोठरी मे चल जात बानी, बाबा जी कहनी कि गुडिया हमरा पुजा वाला लोटा मे गंगाजल ले के आव।
ईया पुजा घर से रुद्राक्ष के माला अरू रोज के हवन मे से तनी भभुती लेके आईली, तलेले बाहर से एगो आदमी खाकी बाबा के मठ से भभुत लेके आईल।
बाबा जी लईकी के सामने बैठी के मन्त्र पढे लगनी, लईकी, बेहोस ओजुगे परल बिया, दाँत लागी गईल बा, ईया बार बार बाबाजी के कहला प गंगा जल छिटल शुरू कदेले बाडी, माई के आवज आईल गुडिया तु अन्दर आ जा, तु मत देख, राती खा डर लागी, लेकिन गुडिया आज ई देखे के मन से बहरीये खडा बाडी।
कुछ देर मे, ऊ लईकी बोल उठल, अर्रे पंडितवा, तोहार हम का बिगडले बानी जे ते हमरा के परेशान करत बाडे, अब बाती साफ़ हो गईल बा कि लईकी के सवा लागल बा, कुल्ही लोग सुरक्षा खाती तनी तनी भभुती अपन माथ प लगा लेत बा, अब बाकी भभुती ओ लईकी के लगावल जात बा, जसही लगावल जात बा, ऊ चिलत बिया, अर्रे पण्डितवा का बिगडने बानी तोर, ते मनबे ना, गुडिया के बहुत खिसी आ गईल, हमरा बाबाजी के आजु ले केहु अतना खराब भाषा मे नईखे बोलले, तहार ई हिम्मत, अभिये सबक सिखावत बानी, बाकी एगो आदमी गुडिया के पकड लेत बा कि ई नु आत्मा बोलतिया, लछमियाँ नईखे बोलत, अरू आत्मा से लडे खाती अभी तु छोट बाडु, मुश्किल से ऊ आदमी गुडिया के सम्भाल पाईल बा।
अब बाबा जी बोलल बानी, ई मुनिया तहार का बिगडले बीया जे तु एकरा के खत्म करे प तुलल बाडु, जा जे तोहार कुछू बिगडले होई ओजुगा जा, एकरा के छोडी द, हम कुछुओ ना करब, हम अन्याय के खिलाफ़ बोलेनि, ई मुनिया के परति अन्याय ना होखे देबी, बाबा जी के कडक आवज सुनी ऊ अरू खिसिया गईल।
पुछ एकरा से ई काहे हमरा पेड पर खेलत रहली हा, एकरा ओजुगा ना खेले के चाहत रहल हा, ई हमरा के तंग कईलसिहा त हमहु करत बानी।
जतना तंग करे के रहल हा क ले लु, अब छोड एकरा के, जा।
पर ऊ हवा जाये के तैयार ना भईल, फ़ेर बाबा जी कुस के गंगाजल मे डुबा के मन्त्र पढी पढी ओ से ओ पे छींटा देबे लागल बानी, बाद मे जैसे मन्त्र खतम भईल बा, लछमियाँ खुब तेज से गुर्रा के फ़ेर ठीक हो गईल, अब ओकरा कौने परेसानी नईखे, ऊ होस मे आके बोलतिया, अर्रे हम एजुगा कईसे आ गईनी हा, हम त ऊ इमलीया के पेडवा प खेलत रहनी हा।
ई बात सुनी के कुल्ही लो के जान मे जान आईल की, ई ठीक होई गईल, बाबा जी रुद्राक्ष के माला के गंगाजल मे धोई के, लछमियाँ के पहिनाई देनी, अरू कहनी की दोई दिन बाद हमरा के लौटाई दिह लो।
लोग बाग बाबा के जयकार करत, ओजुगा से चली गईल, फ़ेरु गुडिया के समझ मे आईल की काहे कबो कबो माई, जब ढेर लो दुआर प आवेला तो गुडिया के घर मे लाखी ले ली, बहरी ना आवे देली।
बाबा जी एक बार फ़ेरु से अपना ऊपर गुडिया के ऊपर अवरू ईया के ऊपर गंगाजल छिरीके के फ़ेरु हाथ मु धोई के खाये चली गईनी।
खाये के दौरन केहु कुछुओ ना बोलल, सब लो अब चुपे-चाप रही गईल, बाती तय भईल की आजु केहु घर मे अकेले ना सुती ना ज्यादा बतियाई, ना त कौनु खतरा आई सकेला, अवरू कुल्ही लो भभुते ले के सुती।
गुडियो को कुछु पुछे के हिम्मत ना पडल... चुप-चाप बाबा जी कहला अनुसार सुते चली गईली।

गुडिया अभी तक के ई पहिला किस्सा देखले रहली आ त उनुका अंदर बहुत बेचैनी समाईला बा लेकिन, बाबजी बोले से मना क देले बानी, अब सुबहे कुछुओ पुछल जा सकेला, ई सोची के चुप-चाप लेटल रह बाडी, एहेमी जाने कब निन्नी आ गईल पता ना लागल।

सुबह के बाते काल्हु सुबह जानल जाई.....:)

सोमवार, 21 जुलाई 2008

आत्म हत्या क्यों जनाब?

भोजपूरी कहानी कल पढियेगा, आज कुछ और, इसमे मेरी गलती नही है, अनुप जी की गलती है, तो कोई शिकायत करनी हो तो उनसे किया जाये और लेख अच्छा लगे तो उसका क्रेडिट मुझे दें :P, पहले बता रही हूँ कि यह लेख कल रात यानि की रविवार को लिखा था, अनुप जी ने कहा कि इसे पोस्ट करना ही चाहिये, इसलिये मै कर रही हूँ ।
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कुछ दिनो पहले अनुप जी का लेख पढा जीवन अपने आपमे अनमोल है लेख का अभिप्राय है "आत्महत्या क्यों ?"
मैने पढा और उसी वक्त उनसे बात हूई कि इस पर अभी कुछ और सोचने की जरूरत है, इसके बाद बात आयी गयी रह गयी, मतलब कि मेरी व्यस्तता मे निकल गयी, आज रविवार है, मानसिक रूप से आज मेरी छुट्टी का दिन है, और आज तबीयत भी कुछ ऐसी है कि बस दिमाग चल रहा है, इसलिये मै बैठी हूँ और दिमाग चल रहा है, आज बैठे-बैठे कई अनछुए पहलुओ पर रोशनी डालने का मन हूआ, कुछ दोस्तो को चिढाया, किसी को वर्चुअल खाना खिलाया, और वादा असली वाला चॉकलेट खिलाने का लिया गया, कुछ दोस्तो से फोन पर भी गपशप हुई, प्रोसेस यही था.. :)
तभी एक सहेली बातो-बातो मे ही रो पडी, कहने लगी कि गरिमा, जी करता है मर जाऊँ।
मर जा,
वो चुप हो गयी, शायद ऐसे जवाब की उपेक्षा नही थी उसको।


एक न एक दिन मरना ही है, आज ही क्यों नही, तू क्या सोचती है? किसी को तेरे जाने से परेशानी होगी? मेरी जान, यहाँ तेरे पिछे लोग कुछ दिन तक आँसु बहायेंगे और फिर अपना रास्ता नापेंगे, और ज्यादा केस हो गया तो, लोग कहेंगे जरूर लडकी ने कोई पाप किया था, किसी को मुँह दिखाने के काबिल नही रही तो बेचारी ने मौत को गले लगा लिया, जिन लोगो के कारण तू जी नही पा रही है, ढंग से ये लोग मरने भी नही देंगे। तेरी बहन रास्ते मे निकलेगी तो लडके परेशान करेंगे, १०० सवाल होंगे, जिस बहन पर तू जीते जी आँच नही आने देती, मरने के बाद क्या करेगी? तेरी आत्मा ऊपर से देख-देखकर रोयेगी, फ़िर मर कर कहाँ जायेगी?.. पर तू परेशान मत हो, तू जा और मर जा।

अब उसकी बारी थी, उसने कुछ बोला नही... काफी देर तक हमारे बीच मौन ही बोला, शब्द नही बोले, बोलते भी कैसे, शब्दो की एक सीमा होती है, पर मौन की सीमा नही होती, वो हर अकथनीय को कथनीय बना देता है, बस उसको समझने के लिये आपका दिल से मौन होना जरूरी है, जहाँ विचार भी खत्म हो जाये वहाँ से मौन की भाषा शुरू होती है, तो खैर मौन हम दोनो के बीच मे बोला, फ़िर चुप्पी तोडी गयी, हम दोनो ही सामान्य हो चुके थे, अब बारी थी शब्दो कि,

गरिमा तू ठीक कहती है, मौत इलाज नही है, परेशानियों के लिये, क्या करूँ, मै कुछ और चाहती हूँ मेरे सपने कुछ और हैं, अपने चाहते कुछ और हैं।

जो दिल कहे, दिल की आवाज गलत नही होती।

वो कैसे?

देख यार, जिन्दगी के कई पहलु होते हैं, हम दोनो ने ज्यादा नही सिर्फ़ कुछ महीने एक साथ बितायें हैं, उसके पहले हम एक दुसरे अंजानसे थे, अब मिलने के बाद बिछडने के बाद, हमारा रिश्ते मे कुछ और बात है, हम दोनो का जीवन हमारा ही क्यों, सभी का जीवन कई रंग ढंग से मिलकर बना है, मै सोचती हूँ, आज के ६ साल पहले मै क्या थी, और आज क्या हूँ तो बहूत फ़र्क महसुस होता है, आने वाले ६ साल बाद क्या होगा, उसकी कल्पना मात्र की है, एक खाँका खींच रखा है, जो जो करना है, मान ले कि वो पूरा नही होता तो क्या करूँगी?

गरिमा मै तुम्हे जानती हूँ, तुम मेरी तरह नही सोचोगी।

हाहाहा, फिर तुम नही जानती, मौत के बारे मे नजरिया ही अलग है, मै कभी आत्महत्या नही करूँगी पर लोगो को, करने पर मजबूर कर दूँगी।

व्हाट?

सॉरी, आत्महत्या नही, उन बंधनो की हत्या जिसके कारण मूझे मेरे ख्वाब नही मिल रहे हैं, मेरा अपना ही नजरिया है, मैने प्लान किया है किन रिश्तो को बनाना है, किन से दूर रहना है, किसको बचाना है, किस पर कितना वक्त देना है, किसको कब स्टाप करना है। अब हमारे सफलता के बीच कोई अच्छी कडी है तो ये रिश्ते हैं, और असफलता यानि की हमारा पैर खींचने वाले भी यही हैं, ऐसे मे उनको स्टॉप कर दूँगी। सब कुछ प्लान्ड है, हाँ इस बीच स्वभाविक मौत आ जाये तो उस पर बस नही है, और ना ही मुझे उस मौत से डर लगता है, बेफ़िक्र हूँ मै।

फिर वो बोली गरिमा मेरे जैसे लोग कमजोर होते हैं ना जो आत्महत्या करने का फ़ैसला कर लेते हैं?

तभी उसकी मम्मी ने उसे बुलाया, और उसे जाना पडा, मैने उसे वादा किया जवाब आज ही भेजुँगी, तभी अनुप जी की पोस्ट याद आ गयी, अब अपन ठहरे बिजनेस करने वाले एक साथ दोनो काम करेंगे, सो वही किया जा रहा, समय की बचत हो जायेगी, कुछ और खुराफ़ात करने के लिये।
अनुप जी के पोस्ट से
"अंकुर बता रहे थे एक दिन कि आई.आई.टी. कानपुर में कुछ दिन पहले आत्महत्या की थी वह खुद बड़ा हौसलेबाज था। कई दोस्तों को अवसाद में जब देखा तब उनके साथ रहा। उनको जीने का हौसला बंधाया। अवसाद के क्षणों से उबारा। बाद में किसी के प्रेम में असफ़ल होने के कारण योजना बना के अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली।"

मैने देखा है ऐसे ही लोग आत्महत्या करते हैं, जो कि सबका हौसला-अफ़जाई करने मे अग्रणी है, तनिक सी देर मे बस वो मौत को गले लगा लेते हैं, कारण आगे बताऊँगी।

अनुप जी आगे कहते हैं कि "बड़ा जटिल मनोविज्ञान है इस लफ़ड़े का। लेकिन मुझे जो लगता है वह यह कि लोग दिन पर दिन अकेले होते जा रहे हैं। विकट तनाव से जूझने वाले के निकट कोई नहीं होता।"
ऐसा नही कि अकेले रहने वाले लोग आत्महत्या नही करते पर, ये आँकडा गलत है अक्सर आत्महत्या वो करते हैं जो सबके साथ रहते हैं, वो मेधावी होते हैं, जो हमेशा खुद को सुलझा हुआ समझते हैं, जिन्हे लगता है कि उनके अपनो की संख्या बहुत ज्यादा है।


अनुप जी आगे कहते हैं कि "आत्महत्या करने वाले ज्यादातर वे लोग होते हैं जो अपने व्यक्तिगत जीवन के लक्ष्य पाने में असफ़ल रहते हैं। इम्तहान में फ़ेल हुये, प्रेम विफ़ल हो गया, नौकरी न मिली। अवसाद को पचा न पाये। जीवन को समाप्त कर लिया। "
ये बात सही है, पर इसमे भी उन लोगो की प्रतिशतता ज्यादा है जो अचानक से विफल हुए।

अब मै अपनी बात को समझा रही हुँ कि मेरे ऐसे कहने का कारण क्या है?

अक्सर वो लोग जो समझते हैं कि वो खुद बहुत सुलझे हूए है, उन्हे कभी यकिन ही नही होता कि वो कभी असफ़ल होंगे, वो हमेशा कहते हूए मिल जाते हैं, मेरा असफ़लता से दूर दूर का नाता नही है, जब ऐसे लोग अचानक टुटते हैं तो उनका वजूद उनसे छिन जाता है, मेरी मित्र भी इसी श्रेणी मे आती है, वो हमेशा कहती रहती थी, मैने कभी असफ़लता का मुँह नही देखा, इस बात का बहुत यकिन था उसको कभी वो असफ़ल नही हो सकती, हर श्रेणी मे वो आगे रही, पढाई लिखाई, दोस्ती, इत्यादि।
अब उसे अचानक से जो भी असफ़लता का सामना करना पडा हो, उसे तोड देने के लिये काफ़ी है, क्योंकि ऐसे वयक्तित्व कडक हो जाते है, एक सहज सा दंभ आ जाता है और जब वो टुटता है तो दुसरा रास्ता नही दिखता, वो समझ नही पाते कि जिन्दगी मे पास या फ़ेल लगा रहता है, जो इस बात को समझ नही पाते वो पलायन कर ही जाते हैं।

दुसरे श्रेणी के लोग जो पलायन करते हैं वो हैं जो दुसरो के लिये जीते है, अपने लिये कुछ नही माँगते, और एक दिन जब उनको खुद की जरूरत होती है,तो "वो" जिनके लिये "वो" जीता आया है, वो पिछे हट जाते हैं, फ़िर उसको लगता है कि मेरा जीवन व्यर्थ हो गया, ऐसे लोग भी आत्महत्या के शिकार बनते हैं।

तीसरी श्रेणी आत्महत्या करती है, वो है किसी ऐसे से यकिन टूटना जिसके लिये वो जीता मरता आया है, यह यकिन अपने प्रेमिका, माँ-बाप किसी पर भी हो सकता है, उस शक्स को लगता है कि दुनिया चाहे कुछ भी कह ले यह शक्स मुझपर यकिन करेगा, इस यकिन का टूटना भी .....।

बाकी कुछ आम श्रेणी के लोग होते हं जिनमे आनुवांशिक तौर पर यह एक बीमारी होता है, ये लोग कभी ना कभी मौत को गले लगा लेते हैं।

और कुछ प्रतिशत उन लोगो का होता है जो बिना मतलब आवेश मे आकर यह कदम उठाते हैं।

इन श्रेणियो को मैने आजतक के किये गये अध्ययन मे पाया है, हो सकता है कि कुछ छुट भी गया हो, जो आने वाले वक्त मे सामने आये।

आदत के अनुसार समाधान भी बता रही हूँ
१. यकिन सिर्फ़ खुद पर करें। क्योंकि एक आप ही है जो खुद को सबसे ज्यादा समझते हैं, कोई और भी आपको समझ सकता है, इस तरह की खुशफ़हमी ना पालें।

२. अगर को आप पर भरोसा करता है तो उसके सोच का सम्मान करे।

३.ये हमेशा मान के चलना चाहिये की जिंदगी दो पाटो मे बँटी है, पास या फ़ेल होना लगा रहता है।

४. किसी के लिये खुद को इतना भी न बदल दे कि अपनी पहचान ही खो जाये, क्योंकि जब वो आपको किसी कारणवश छोडेगा तो फ़िर आपके पास अपने लिये कुछ नही रहेगा।

५. अपनी प्राईवेसी का सम्मान करें।

६. अपनी गुणो-अवगुणो का विवेचन करते रहिये। ताकि किसी तरह की खुश-फहमी आपके दर्द का कारण ना बन जाये।

७. अगर आपको बार बार मरने का ख्याल आता है तो मेडिटेशन जरूर करें, पी के एम ने इसके लिये अलग से कोर्स भी बनाया है, या किसी भी तकनीक के मेडिटेशन को अपनाया जा सकता है। ( अब ये मत पुछियेगा कि पी के एम क्या है? भाई ये मेरी अपने तकनीक है)

८. गोल्डेन क्रिस्टल अपने साथ रखें। यह आपको मानसिक रूप से ठीक ठाक रखने मे मददगार।

९. अब भी बात नही बन रही है तो..... मैने अपनी सहेली को जो बात बोली, एक बार पढ लें :)।




शुक्रवार, 18 जुलाई 2008

भोजपुरी कहानी

कहानी सुनावे के पहिले ही बता देता नी कि हमरा कहानी लिखे के कौनो अनुभव नईखे, लेकिन ना लिखब त होईबो ना करी, एसे लिखल सुरु करतानी, लिखते लिखत नु आई। :)

लोग बाग कहेले कि आजु पुरनमासी के राती मे भुत-प्रेत के हमला होला, ई साची बाती हा ईया?
हा गुडिया, ई एक दम साची बाती ह, ऐसन क गो किस्सा हम देखले सुनले बानी, तहार बाबा जी के भी ऐसन क गो किस्सा देखे सुने के मिलल बा।
तबे गुडिया के बाबा जी बहरी से आ जानी अरू पुछने, अर्रे का बाती होत बा, हमरो के बताव लो।
बाबा जी ईया कहत रहली हा कि आजु के रात मे भुत-प्रेत के हमला होला, ऐसन रऊओ देखले सुनले बाने। एके बाद ओजुगा एगो सन्नाटा पसर जात बा, केहु कुछु नईखे बोलत, फ़ेर गुडिया खुदे बोले लाग तारी, बताई ना बाबा जी ई बात साच बा का?
बाबा जी, ईया के धीरे से बोलेनि, तु हु ई का काम करत रहेलु, अब ऊ डेरा जाई कि ना... आ झुठ बोलि के कि अईसन किस्सा नईखी देखले, तहार बाती के काटियो ना सकेनि, ई त भढिया सनिकट हो गईल।
राऊओ नु एकदम से कुछुओ ना बुझेनि, आखिर राऊर उमीर अब बितल जाता, ए परमपरा के एकनिये के तो निभाहे के बा नु, एकेनि के ना बताईब त भुत प्रेत प रऊआ जतना मन्त्र सिद्ध कईले बानी, एही गाऊआ के बचावे मे जतना मेहनत कईले बानी, सब व्यरथ चली जाई।
ह्म्म बतिया त तोहार ठीके बा, पर अभी गुडिय त कतन छोट बिया, अभीये से डेरावल ठीक नईखे लागत।
तब तक गुडिया बोल देले, बाबाजी काहे के डेराईब हम, हमहु ऊहे काम करब, जवन रऊआ करेनि, तनिकियो ना डेराईब, रऊआ बताई ना।
बाबाजी ईया पुजा वाला कमरा मे जाके पहिले हनुमान जी के माथा टेकेनि, फ़ेरु हनुमान जी के झंडा किहा आके ओकरो परिकरमा करेनि, फ़ेरु ओजुगे बैठिके कौनो मन्त्र पढी के, गुडिया के कुस से झाडेनि, तब जाके कहानी सुनावल शुरु करेनि।

ढेर दिन पहिले के बाती ह, जब ई गाँव नु गाँव ना रहल हा, एगो जंगल रहल हा, हमनी के पुरनिया (पुर्वज) ए जंगल के काटी काटी के एकरा के रहे लायक बनावत रहेलो, जे जतना जंगल के काटी के ओकरा के रहे लायक बना सकत रहे, ऊ जमीन ओही आदमी के हो जात रहे, एगो परिवार नु बहुअ बेहनती रहे अरू ऊ ढेर जमीन साफ़ कलेलस, दुसरा लोगन से ई देखल ना गईल, एगो राति, जब कुल्ही लो सुतल रहे, गाँव कुछु लोग मिली के ओ परिवार के पुरनिया के मार दिहल, अरू उनका लैकन के भगा दिहल, ओकरा बाद जतना जमीन ओ लो के रहे, सबे हडप लिहल। पुरनिया के आतमा दुख से भटके लागल, अरू ओ परिवार के सराप दे देलन कि, तहनि लो ए गाँव मे रहिओ के ना रही सकब लो, हमार बेटन के तहनि लो जतना दुख देले बाड लोग ओसे ज्यादा दुख मिली, तहनी लो के घरे कबो कौनो काम खुसी खुसी ना बीती, अरू ए गाँव मे केहु तहनि लो के साथ दी ही तो ओकरो घर मे कौनो दिन खुसी खुसी ना बीती।

तलेले गुडिया बीच मे टोक देलि, बाबाजी ई बतिया आतमा कैसे कहले होई, माने हाँव वालन के कैसे बुझाईल होई, काहे कि आतमा त लऊकेला ना नु?
ना ना गुडिया आतमा लऊकेला ना बाकि ऊ चाहो तो अपना होखे के सबुत दे सकेला।
अच्छा, अच्छा अब आगे बताईं।

पहिले त केहु ई बाती के ना मानल, सब लोग आपन-आपन काम मे लागल रहल अरू वक्त-बेवक्त ओ परिवार के साथे भी रहल।

फ़ेर का भईल बाबा जी, का ऊ आतमा के बाति साच निकलल, का गाँव वालन के परेसानी भईल.....?
हा, उहे तो बताव तानि, एगो राति खुब जोड जोड से पानी पडे लागल, अरू तब बरसाति के मौसमवो ना रहे, सुबह भईल, पानी बन ना भईल, ऐस करत करत क राति बीती गईल, लेकिन पानी परल बन ना होत रहे, अब लोगन के चुल्हा मे लौना-लकडी ना बाचि गईल रहे...

तलेले गुडिया के माई आके कहेलि, माताजी, बाबुजी खाना बनी गईल, चली सब खा ली।

माई अभी रह ना कहानी सुने के बा, बाद मे खाईब जा।

कहानी काल्हु सुनिह गुडिया, एहुतारि राती खा ई कुल्हु के बारे मे ना बतियावे के चाही, सापना मे डर लागी....

अरू गुडिया उनुकर ईया अरू बाबाजी खान खाये चल दे ता लो, बाकी गुडिया के मनवा मे त कहानी के आगे जाने के हुदहुदी ले ले बा.. लेकिन अब माई के कहला के राखी के काल्हु के इनतेजार त करही के पडी।

कहानी के अगिला हिस्सा

सोमवार, 7 जुलाई 2008

चलो थोडा बच्चा बन लें-२

छबी बलो को मेला नमछ्काल, आप छब मुजे ना जानते ऐं, मै छोटी गलिमा ऊँ।

आज ना मेले बले बईया का बल्थडे है... आप छब भी जानते ऐं उनको, मेले छे ज्यादा जानते ऐं, वो ना कई दिनो छे आपके दिलो पल दस्तक देते आ लहे हैं, उनके महफ़िल मे भी हम छब जाते ऐं औल मन्त्लमुग्ध ओ जाते ऐं, मेले बले बईया न सिल्फ़ इतना ही नही कलते बल्कि तेकनालऑजी पल भी लेक्चल देते हैं, जो कि मेले पल्ले बिल्कुल नही पलता ऐ... पल मेरे बईया मेले को ना बऊत प्याल कलते ऐं, अछक्लीमा बी किलाते ऐं... औल औल... बहुत छाली अच्छी बाते बी बताते ऐं।

इछलिये आज ना मै मेले बले बईया का बल्थ्डे मना लई ऊँ, आप छब बी मेले बले बईया क बल्थडे बनाओ... मेले छंग गाना गाओ...

एपी बल्थ्डे टु यु, एपी बल्थ्डे टु यु बईया... मे गॉड ब्लेछ यु विद हिज ऑल पावल :)
ऐब अ ब्लाछ्ट :)

मेले छंग छब गाना और बईया का बल्थ्डे मनाना

गुरुवार, 27 मार्च 2008

चलो थोडा बच्चा बन ले।

छ्बी बडो को नमछ्काल।
मेला नाम गलिमा ऐ औल मै तीन छाल की छोटी बच्ची ऊँ।
मुजको ना अछ्क्लीम बोत पछंद ऐ...तो मैने छोचा कि मै ऐछा का कलूँ कि ढेल छाली अछ्क्लीम एक छाथ मिल जाये... तो उछे मै लोज लोज का छकूँ।
तो मेने बली गलिमा को बोला कि अपने दोछ्तो छे मेले लिये अछ्क्लीम माँद ले... लेकिन छबछे एक एक कलके अछ्क्लीम मांदना बली मुछ्किल ता ताम ऐ, तो मेने छोचा कि छबको एक छाथ कबल कल देते हैं।
इछईये मे पोछ्ट ईख अई ऊँ।
मेले को छबी लोग एक एक अछ्क्लीम बेज देना, उछ्को मे लोज लोज खाऊँदी... औल मे अच्छे बच्चे की तलह पल्हाई बी कलूँगी... औल मे तबी तबी थोली छी छलालत बी कल लूँदी... औल मे ज्यादा बमाछी नई कलूँदी.. बछ थोली छी कल लूँगी।
थोली छी बमाछी तो कल छ्कते ऐ ना... कूँ कि छोटी ऊँ, तो मुजे इत्ती छुत तो मित्ती ऐ ना... वैछे बी बच्चे बलो कि तलह थोली ना बमाछी कलते ऐं... ना ही वो बलो कि तलह लते ऐं... वो तो बछ थोले से छमय मे खुछ ओ जाते ऐं।
मै बी ऐछी ई ऊँ.. कबी थोला छा गुछ्छा कलके फ़िल ताली बदा के किलकारी दे के अछने अगती हूँ... औल मै जदी छे छाला गुछ्छा भू के छबके छाथ खेने भी अगती हूं।
पल ऊ का है कि.. कुछ ओगो को अम बच्चो कि बाते छमझ मे ही नही आता... उन्को अगता ऐ कि.. अमे जदी से बआ ओ जाना चाईये.. ताकि हम बी बओ कि तलह.. जुठ, छच.. छ्ल कपत को छमज छके... अमाले बचपन को कतम कलके.. लोग अमे बला बनाना चाते ऐ.. आप कुद ई चोचो.. अम बच्चे नई रहेंगे तो.. आपको अपन बच्पन किधल मिएगा.. ओ खुछी अछ्क्लीम काते ऊए मित्ती ऐ.. वो किधल दिकेगी... जो कुछी प्याल कके मित्ती ऐ.. वो बी नई मियेगी... इछिये आप भी बलप्पन छोल के आओ थोले देल के लिये... औल च के अक्लीम काते ऐं। औल.... औल.. मे बाद मे बताऊँदी नई तो मेली अछ्क्लीम पिदल जायेदी।

बुधवार, 20 फ़रवरी 2008

हाँ कुछ तो पढ़ा

चलते चलते अनुराधा जी बोली ये पढा ? लिंक देकर तो वो गायब हो गयीं, मैने अनमने भाव से पढ़ना शुरु किया, माफ किजिये अनमना इसलिये कहा कि पढ़ने जैसा मन नही हो रहा था, फिर भी पढ़ना शुरु किया।
सुजाता जी ने अपने पोस्ट मे दो लिंक दिये हैं, उनके साथ आगे बढ़ गयी, और कुछ ही देर मे विचारो के लहर बनने बिगड़ने लगे।
अभी मुझे ठीक से समझ मे नही आ रहा है कि मैने क्या पढ़ा... और पढ़ा तो क्या पढ़ा? या जिसने लिखा लिखते वक्त उसके दिमाग मे क्या चल रहा होगा?
मैने जिस मनोदशा मे पढ़ा क्या वो स्थिती लेखिका के मनोदशा से तालमेल बिठा पा रहे हैं? इन सवालो के जवाब मे उलझ गयी हूँ।
अब बात ये रही कि, अगर मै ऐसी ही उलझी हो तो लिखने क्यूँ बैठी? और लिखा भी तो सिर्फ डायरी एक पन्ने मे रहने देती... जरूरत क्या है जग जाहिर करने की? इसका जवाब भी नही है मेरे पास।
खैर, मै जो सोच रही हूँ वो कि, "मै" जो कुछ हूँ, उसका मुल्यांकन अगर "मै अपने तरीके से नही कर सकती तो, मेरे होने का मतलब ही क्या है?
"मेरे" होने का सार्थक मतलब तो तभी निकल पायेगा, जब मै खुद को जान सकूंगी, लेकिन शायद समाजिक लोगो को यह बात पसन्द नही, उन्हे "मेरे" होनेपन के अस्तित्व का बोध होने से खतरा है, या खुद "मै" मेरे होनेपन की स्थिती को स्वीकार करने से घबड़ाती हूँ।
कल शाम पड़ोसी अंकल से ऐसे बात हो रही थी, बात ही बात मे वो अपने आपको सम्पूर्ण सामाजिक बताने के कोशिश मे लगे थे, उनके साथ उनकी सहधर्मिणी भी थी।
वो दोनो बता रहे थे, सामाजिक होना कितना मेहनत का, चातुर्य का, और सम्बल का काम है, ये हर किसी के बस की बात नही है, वगैरह वगैरह।
मैने उनसे पुछा कि" ऐसे मे आप अपने लिये, अपनी सोच के लिये वक्त निकाल पाते हैं?" क्या आप अपने ही अन्दर के भावो को समझ पाते हैं?" या आप अपने अपनो को, अपने बीवी बच्चो के मनोभाव समझ पाते हैं?"
इसके जवाब मे वो बोले, समझना क्या है, ये तो मेरे अपने हैं, ये तो मेरी हर बात मान ही लेंगे।
बात यह सोचने कि है, जो इंसान खुदको नही समझ पाया,वो समाजिक कैसे बनेगा? वहाँ तो बात और गम्भीर है, वहाँ तो ना जाने कई अस्तित्व हैं, जो खुद भी खुद को नही जानते, उन्हे कैसे किसी नियम मे बान्धा जा सकता है? य कुछ समझाया जा सकता है?
सीधी सी बात है, रोशनी देने के लिये, या किसी के घर का दीया जलाने के लिये अपने घर जलता दीया चाहिये ही चाहिये, इसके बिना काम नही हो सकता।
हमारी स्थिती भी कुछ ऐसी ही है, हम खुद अपनी स्थिती से या तो नावाकिफ हैं, या जानते हूए भी उसे ना जानने का ढोंग करते हैं, जैसा कि मनीषा जी कहती हैं कि "दादी के पैमाने ज्‍यादा संकुचित थे, मां के उनसे थोड़ा उदार और हॉस्‍टल के सहेलियों के थोड़ा और उदार। लेकिन पतित सभी की नजरों में रही हूं। जैसेकि शीशे के सामने चार बार खड़ी हो गई, या कोई रोमांटिक गाना गुनगुनाया, थोड़ा ज्‍यादा नैन मटका लिए, चलते समय पैरों से ज्‍यादा तेज आवाज आई, भाइयों के सामने बिना दुपट्टा हंसी-ठट्ठा किया तो दादी को मेरे अच्‍छी लड़की न होने पर भविष्‍य में ससुराल में होने वाली समस्‍याओं की चिंता सताए जाती थी।

यह समस्या एक अकेली मनीषा जी कि नही, लगभग हर लड़की की रही होगी, और मै यकिन के साथ कह सकती हूँ कि दादी के साथ भी रही होगी, इसके बावजुद दादी समझ नही पायी और सामाजिक बनते हूए, अपनी पोती को समाजिक बनाने के प्रयत्न मे लगी रहती हैं।
मेरी दादी अक्सर मुझे बताया करती थी कि उन्हे अमरूद खाना बहुत पसन्द है, इसलिये वो हमेशा चाहती कि माँ उन्हे थोड़ा ज्यादा दे दे, लेकिन ऐसा हो नही पाता था, अक्सर भाईयो को बड़ा हिस्सा मिलता, जिन्हे वो कुतर कुतर कर फेंक देते, इस तरह के कई किस्से वो बताती थी और उस वक्त मै उनकी आँखो मे वो नज़ारे देख सकती थी।
लेकिन इसके बावजुद दादी बेटे, बेटी के सीमा रेखा को पाट नही सकी और ना ही पोते-पोती की सीमा रेखा को, मै कभी कभी इसपर उनसे पुछा करती थी कि दादी आपको नही लगता, कि आप कुछ कमी कर रही हैं, तो उनका जवाब होता था, क्या करूँ समाज का यही दस्तुर है।
मुझे यह जवाब कभी पसन्द नही आया, आखिर ये कैसा दस्तुर है? जो खुद को ही समझ से परे रखने पर मजबुर करता है, जो खुद को भूलजाने पर मजबुर करता है। लोग कहते हैं "बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेहूँ" अर्रे बीती को भुलने से काम नही चलेगा, उसे अपने पास धरोहर की तरह रखना चाहिये, ताकि आगे वो पिछला अनुभव काम आये।
हमारे समाज मे यही गड़बड़ है... हम अपने उन कटु अनुभवो को याद करके रोते तो हैं, पर आगे ऐसा ना हो इसका प्रयत्न नही करते।
हम "मै" कि खोज मे रहते हैं, पर एक तरफ समाज के बीच उस "मै" से किनारा कर लेते हैं।
विशेषकर यह बात लड़कियो के लिये लागु होती है, एक पीढ़ी दुसरी पीढ़ी को अपने "मै" के खोज मे आगे नही बढ़ने नही देती, उन्हे हमेशा ना जाने किस समाज का भय खाये रहता है, वो भूल जाती हैं कि, जिस समाज मे "मै"(अस्तित्व) ना हो उसके साथ जीना ही कितना आधारविहीन है, और फिर कोई "मै" इस समाज को मानने से इंकार कर देता है तो उसे आसामाजिक तत्व का तगमा दे दिया जाता है या पतित कह दिया जाता है।

हाँ पर मुझे कहना पड़ेगा तुम्हारी नज़र मे मै पतित ही सही, पर मैने आज जब अपने अस्तित्व को पहचाना है तो मुझे तुमसी बनने की चाहत भी नही रही, बैठी रहो किसी के लिये सामाजिक बनने कि चाहत मे, "मै तो" आज खुद के लिये जीना चाहती हूँ।
ताकि आज मै कह सकूँ कि "हाँ यह जो मै हूँ वो किसी समाज की धरोहर नही, बल्कि मै खुद एक नये समाज के सृजन मे प्रयत्नरत हूँ, मै वो अस्तित्व हूँ, जो मुझसी होकर जीना चाहती हूँ, इस गगन को अपने पंखो से नापना चाहती हूँ, इस दुनिय को अपने रस्मो-कवायदो के अनुसार देखना चाहती हूँ, मेरे अन्दर किसी और सी बनने की ललक नही है, ना हि मै चाहूँगी कि "तुम" मुझसी बनी, "तुम"भी तो एक अस्तित्व हो मेरी तरह ही, जाओ तुम भी अपनी एक दुनिया बनाओ।"


बुधवार, 23 जनवरी 2008

भारत रत्न के सच्चे हकदार

जब दलाल बन गया हलाल स्ट्रीट तो सभी लोग अपने अपने शेयर बेचने मे लगे थे, हालात देखकर ऐसा लग रहा था कि सभी लोग जब बेचने मे लगे हैं, मार्केट सुधरेगा कैसे?
कोई तो खरीददार भी होना चाहिए? ऐसी हालत मे जीतू भाई और मै खरीदने मे लगे थे, हो सकता है हमारे ही खरीदने से मार्केट सुधरा हो... :D

ऐसे मे भारत रत्न के असली हकदार तो हम हूये ने, जाने और कितने लोग हलाल होते और हमने बचा लिया :)