बुधवार, 7 मार्च 2007

जब जिंदगी बन जाये एक सवाल

जन्म तो हुआ,
जीवन ना मिला।
साँसे तो मिली,
लेने को इजाजत ना मिली।

दिल तो है...
मुस्कुराने का मौसम न मिला।
है मेरा भी वजूद
सोचने को वक्त न मिला।

बचपन बीता,
तानो की गुँज मे।
मौसम बदला,
चार-दिवारी मे।

कभी जो खेलना चाहा,
इनाम मे मिला,
गर्म सलाखो का तमाचा...

ये जिन्दगी है?
या मौत है?
आज भी...
कई बेटियों की चिखती आवज
पुछ रही है....
कहाँ है उनका बचपन?
क्या जीना मेरा अधिकार नही?

पर ये सवाल घुट के ही रह जाता है...
किसी के कानो तक कहाँ पहुँच पाता है!



7 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

इतना दुःख क्यों झलक रहा है..

गरिमा ने कहा…

मिश्रा जी जब बात दुख की हो तो दुख क्षलकेगा ही...

आपका शुक्रिया
गरिमा

Dr Prabhat Tandon ने कहा…

अगर गरिमा जी अगर यह यथार्थ है तो बहुत ही कष्टदायक होगा और इसकी पीडा वह ही समझ सकता है जो इससे गुजरा हो।

बेनामी ने कहा…

कभी हिमाचल भी आयें!

Mohinder56 ने कहा…

कविता
दुख के भावों को अच्छी अभिव्यक्ति दी है

बेनामी ने कहा…

अब समय बदल रहा है गरिमा जी।

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

हम जैसा देखते, सुनते और महसूस करते हैं, अधिकतर वही हमारी बातों, विचारों और रचनाओं में व्यक्त होता है। ज़रूरी नही कि एक के मन की बात दूसरा भी उसी शिद्दत से महसूस कर सके। पर एक संवेदनशील आदमी को दूसरे की भवनाओं का सम्मान करना ही चाहिये। इस नज़रिये से मैं आपके भीतर की रचनत्मकता को सलाम करता हूं।