शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

क्यों खोजूं तुझे कहीं और, क्या तू मुझमे शामिल नहीं है?

क्यों खोजूं तुझे कहीं और,

क्या तू मुझमे शामिल नहीं है?

किसकी खोज करूं आखिर?

क्या मेरे अस्तित्व में,

तेरा अस्तित्व शामिल नहीं है?

तेरे बिन पूर्णता

आखिर किस कदर होगी?

क्या तेरा ओज़,

हर शय को हासिल नहीं है?

ये प्रश्न भी आता है सामने कि,

गर तू,

मुझमें और सम्पूर्ण जगत में

शामिल है।

तेरा ओज़ हर कण को हासिल है।

फिर वो जो तुझे ढ़ूंढ़ते हैं,

पवित्र दीवारों में

मंत्रों और आज़ानो में

जो बताते हैं हमें,

कि तेरा अस्तित्व शामिल हैं

उनके हरेक व्यख्यानो में।

उनकी नज़रें, दीदार कर सके

हर कण में तेरा अक्स,

वो रोशनी उन्हें क्यों हासिल नहीं है?

3 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

हर एक में शामिल है वह।

रश्मि प्रभा... ने कहा…

http://bulletinofblog.blogspot.in/2012/06/5.html

shahnawaz ali ने कहा…

सब अगर मन से मान लें तो दूरियां पल भर में सिमटती नज़र आयेंगी