काफी दिनो से एक ही तरह के सवाल जवाब चल रहे हैं आजकल, मुझे लग रहा है कि बच्चे(भाई-बहन) बडे हो रहे हैं, खासकर मेरा भाई जो कि क्लास १ मे पढ रहा है, रोज आकर कोई एक विषय पर बात होती है, पूरे कहानी मे एक ही सवाल उठता है कि "अच्छा किसे कहते हैं, बूराई की परिभाषा क्या है"?
उससे बात करते करते शायद मै खूद को भी समझा रही हूँ कि अच्छा क्या है बूरा क्या है? क्योंकि अगर कोई ऐसा जवाब दे दिया जो व्यवहारिक रूप से मान्य हो ही नही पाये तो ऐसे जवाब का क्या मतलब रह जायेगा? और टालने के लिये मै कोई सा भी जवाब देना कभी पसन्द नही करती हूँ।
एक दिन वो मुझसे खूद ही बोल पडा दीदी.. आप बताओ, क्रोध, अहंकार यह सब गंदे हैं?
मैने कहा कि हा बेटा यह सब ठीक नही, गुस्से मे आकर आप कोई काम ठीक से नही कर पाते और जो लोग घमंडी होते हैं उन्हे कोई पसन्द नही करता। उसने जवाब सूना फ़िर खेलने लग गया, थोडी देर मे ही उल्टी सीधी हरकते करने लगा, इतना की अब मुझे गुस्सा आ ही गया, और मैने डाँतते हूए कहा कि ऐसे काम नही करने चाहिये, आदत गंदी होती है।
सबको परेशानी हो सकती है। इस पर वो बोल पडा मतलब कि अभी आप गुस्से मे हो? मैने कहाँ कि हाँ, अभी गुस्से मे हूँ, अगर ऐसे ही छोड दूँगी तो तुम्हे समझ मे कैसे आयेगा कि गलत क्या है सही क्या है? फ़िर वो हँस पडा, अभी तो आपने कहा है कि, गुस्सा अच्छी बात नही है!!!
मै चुप थी.. तो वो ही बोला... मुझे पता है... कोई भी आदत गलत या सही नही होती, गलत और सही वक्त होता है, और वक्त की माँग होती है। क्लास १ के बच्चे के मूँह से ये बात सुनना अजीब सा लग सकता है, पर उसके मूँह से सुनना कभी अजीब सा नही लगा, रहरहकर वो जाने किस दुनिया से बोलता है। खैर मुझे अपनी गलती समझ मे आयी और मैने उससे माफ़ी भी मांग लिय और ध्यान रखा कि आगे से बोलूँ सोचसमझ कर ही बोलूँ।
जवाब देने के पहले खूद को वहाँ खडा रखकर देखना ही पडेगा।
ऐसे कई सारे सवाल-जवाब हैं जो हम भाई बहनो के बीच चलते रहते हैं, उ़सी मे एक और सवाल जुडता है... हिंसा और अहिंसा मे कितना फर्क है?
इसी पर अधारित लेख है ज्ञानदत्त जी का। सुबह सुबह ये लेख पढा तो मेरे दिमाग मे भी इस विषय पर लिखने के लिये कुलबुलाहट मच गयी, उसी तर्ज पर यह लेख लिख रही हूँ।
वह पूरा लेख ही विचारपूर्ण है, लेख वही पढिये नही तो मुझे पूरी के पूरी सामग्री यहाँ चिपकानी पडेगी।
वास्तव मे अहिंसा और हिंसा के क्या फर्क है? समझना समझाना बहूत मुश्किल है। मेरी दादी यहाँ आती हैं तो हम रोज ही पागल हो जाते हैं, मच्छर नही मारने देती, और तो और खिडकियाँ खोल देती हैं "भाग जा लो भगवान जी, ना त ई तहरा के मार दिह स" भाग जाओ भगवान जी वरना ये तुमको मार देंगी, उल्टे होता ये है कि अंदर के मच्छर बाहर तो जाते नही कुछ और आ जाते हैं, और हम हँसते है कि ईया भगवान जी के हमनी के हाथे वैकुंठ जाये के मन करत बा, भगवान जी को हमारे हाथ वैकुंठ जाने का मन कर रहा है।
और आजकल तो जबसे मच्छरो को मारने का रैकेट आया है, अपने हाथो से मार देते हैं, मेरी दादी को मच्छरो को को भी मारना अपराध बोध से ग्रसित कर देता था.. वो उदास हो जाती थी... और आज तक मुझे उदासी नही आयी। और वहीं उनके कई ऐसे काम होते हैं, जिनसे हमको अपराधबोध लगता है पर, उन्हे लगता है कि ये समाज की माँग है खैर।
ज्ञानदत्त जी पुछते हैं कि "हत्या का अपराधबोध किस स्तर से शुरू होत है" ?
इसका जवाब बहूत ही मुश्किल है, मेरा एक दोस्त जो हाल ही मे किसी मुजरिम को पकड के आया था, वो बता रहा था कि जिस मुजरिम को पकडा गया है, वो अभी मात्र १८ साल का है और उसने ३ लोगो को आराम से मार दिया, पूछताछ पर बताया उसने कि उसने सिर्फ़ ये देखने के बाद मारा कि मारने के बाद कैसा लगता है?
मेरा दोस्त बहूत उदास होकर बता रहा था कि गरिमा उसके चेहरे पर थोडा भी गम नही था, वो लडका बडे आराम से अपना किस्सा सुना रहा था, वो बहूत रोमांचित था.....
उस लडके को अंत तक अपराध बोध नही हूआ! क्यों?
ओशो कहते हैं "जो काम आपको आपके दिल को सुकून पहुँचाये सो शुभ है, और जो काम आपके सुकून मे बाधक है, वो अशुभ है" पर अब इस लडके के बारे मे क्या कहते ओशो?
जिसने ३ लोगो को सिर्फ़ रोमांच के लिये बेरहमी से मार डाला और उसे बहूत मजा आया.. क्या यह भी शुभ था?
मेरे सहेली के दादा जी, उनको भी मेरी दादी की तरह मच्छर मक्खी मारने से परहेज है, पर किसी को कैसे रूलाते हैं? उनसे अच्छा भला कौन जान सकता है? क्या किसी के आँसू को देखकर उनके दिल मे सूकुन मिलता होगा? और अगर हाँ तो कैसे?
"मुनि अहिंसा को मुंह पर सफेद पट्टी बांध एक एक्स्ट्रीम पर ले जाते हैं। मुन्ना बजरंगी या अल केपोने जैसे शार्प शूटर उसे दूसरे एक्स्ट्रीम पर। सामान्य स्तर क्या है?" ज्ञानदत्त जी कहते हैं।
बिल्कुल सही बोलते हैं। दोनो ही एक्स्ट्रीम पर हैं, और इसलिये दोनो ही अशुभ हैं? क्योंकि दोनो ने ही जीवन से अपना मूँह मोड लिया है, एक जीव को इतना बचा रहा है कि अच्छे बूरे का फ़र्क ही भूल गया, कोई विषैला हो सकता है, जन जाति को परेशान कर सकता है, इस बात से उनको कोई फ़र्क नही पडता। वो भी एक तरह से विनाश के कगार पर खडे हैं। ठीक कुछ ऐसे की पूलिस चोर को बोल रहा है कि मै आँखे बन्द कर लेता हूँ तुम चोरी कर लो!!!
दुसरा लोगो का अपने हाथो ही विनाश कर रहा है।
अन्तर क्या है दोनो मे? मुझे तो कुछ नही लगता।
अब "सामान्य स्तर की बात" ओशो कहते हैं कि ये जीवन बीणा के तार की तरह है, जैसे की बीणा का तार अगर बहूत ढीला हो तो भी स्वर लहरी नही निकलेगी, और कडक होने पर भी नही।
स्वर निकलने के लिये तार का सही समन्वय होना जरूरी है। खैर मै बीणा के बारे मे नही जानती, पर इतना समझ मे आ रहा है कि उन्होने जो कहा वो एकदम सही कहा, मेरे चाचा जी ढोलक के ताल को ठीक करने के लिये पेंच को बारबार सही स्थिती मे ले जाते थे।
अब मै अपने शब्दो मे कहूँ तो शुभ वो है जिससे किसी का जीना आसान हो जाये और खूद को भी तकलीफ ना हो, और अशुभ वो है जिसके कारण कई लोग तकलीफ मे आ जायें।
यह परिभाषा मुझे सही लगती है।
मच्छर को मारना अपने मजबूरी है, नही मारेंगे तो वो हमे मार डालेंगे, आतंकवादी को मारना मजबूरी है, नही मारो तो हमे मार डालेंगे।
पर किसी ऐसे शक्स के आँखो मे आँसू भर ला देना, जिससे समाज कोई खतरा नही है, वो अशुभ है, भले वो इंसान पागल ही क्यों ना हो?
किसी ऐसे का मजाक बना देना जो आप पर पलटवार करने के मे नाकाबिल हो, और वो दूखी हो जाये अशूभ है।
अपने बच्चो को खिलाने के लिये किसी और का पेट काटना अशुभ है, पर किसी ऐसे का पैसा ले लेना, जिसके कुत्ते भी राजाओ की जिन्दगी बिता रहे हैं, पूरी तरह शुभ है।
ये मेरा अपना मानना है। मुझे आज भी याद है, स्कुल मे मै दादा के नाम से जानी जाती थी, जबकि मैने कभी किसी पर गलत आरोप नही लगाया, पर हाँ उन प्रत्येक हाथो को रोकने की कोशिश की जो बेमतलब किसी का गिराहबान पकडने के लिये आतूर होते थे। मै अपनी तारीफ़ नही कर रही हूँ, बस अपने विचार व्यक्त कर रही हूँ।
मुझे हमेशा से लगता आया है कि मेरा एक झुठ अगर किसी को हँसा सकता है, नयी जान दे सकता है तो वो पूर्णतया शूभ है, और ऐसा कोई सच जो किसी को तकलीफ दे सकता है वो अशूभ है।
इस बारे मे मै हमेशा प्रैक्टिकल रही हूँ। फ़िर भी कभी कभी ये सवाल परेशान करता है कि क्या आजतक जो किया वो सही किया?
पिछले दिनो मै एक सहेली से मिली, उसकी शादी हो गयी है, पति भी साथ मे ही थे, वो बोलने लगी गरिमा ये जो हैं ना बिल्कुल तुम्हारी तरह हैं, बेमतलब का दूसरो के लिये झगडा मोल लेते हैं, उस समय तो मै कुछ नही बोली.. पर मेरे दिमाग मे चल रहा थ... क्या आजतक जो मै करती आयी हूँ, वो सब बेमलब था?
मेरी उस सहेली के लिये भी मैने कई बार लोगो से झगडा मोल लिया था... तो क्या वो भी उसके नजर मे बेमतलब का था? सवाल जब गहरायें तो मुझे आखिरकार उससे पूछना ही पडा.. वो बिल्कुल सकपका गयी.. आप समझिये उसकी सकपकाहट मेरे सवाल के लिये नही था, बल्कि इसलिये था कि कही उसके पतिदेव के सामने ये बात ना खूल जाये कि आखिर वो झगडे मैने क्यों किये थे?
खैर उसकी दशा मै समझ गयी और चूप हो गयी... और मेरे मन एक अजीब सी शांति छायी कि नही मैने सब अच्छे काम ही किये हैं और आज फ़िर से किया.. और यही शुभ है.. अगर मेरी किसी बात से उसके जिन्दगी मे कोई अनबन आ जाता तो वो अशूभ होता.... अभी इसपर सोचने को बहूत है... पर अब वक्त इजाजत माँग रहा है... मै इस विषय पर एक बार फिर से जरूर लिखूँगी तब तक आप भी अपने अपने विचार जरूर रखियेगा।
5 टिप्पणियां:
दूसरों के कहे को अपन ना अच्छा मानते है ना बुरा.
जिसे अपना दिल अच्छा कहे वो अच्छा और जिसे अपना दिल बुरा कहे वो बुरा.
इति.
शायद कहीं शेक्सपीयर का कथन है - कोई चीज अच्छी या बुरी नहीं होती; विचार उसे वैसा बना देते हैं।
हम अपने वैल्यू सिस्टम का निर्माण करते हैं - अपने जीन्स, परिवेश और विचारों से। तदानुसार अच्छे-बुरे का निर्णयन करते हैं। हमारा वैल्यू सिस्टम भी स्थाई नहीं होता। समय के साथ हम ग्रो करते हैं - या पतित होते हैं। बापू के विचारों में भी काल के साथ अन्तर आये और बापू ने स्वीकारा भी कि भूतकाल का मोहनदास उस समय के मोहनदास से अलग है, क्यों कि उसने समय के साथ सीखा है।
शायद सतत विकसित होना और सतत आत्म परीक्षण; यही कुंजी है अपनी परिभाषायें तय करने की। और "ऐसे मामलों में तर्क से नहीं, आत्मा से पूछना चाहिये जवाब"।
आपने बहुत मन्थन करने को प्रेरित करने वाला लेख लिखा। धन्यवाद।
आपने अच्छा सोचने का मसाला दे दिया। आपने ज्ञानजी का लेख पढ़ा। उसमें उन्होंने लिखा कि उन्होंने एक दिन में पन्द्रह- बीस मक्खियां मारी। अब एक तरह से तो अच्छा है कि कम से कम कुछ तो किया लेकिन अगर दूसरी तरफ़ से देखें तो कैसा लगेगा कि दिन भर में कुल १५-२० मक्खियां के अलावा और कुछ नहीं किया। तो सब सापेक्ष है जी। वैसे आपका भाई समझदार है।
aapnay zindgi ki un baato per baat ki jin per aaj shayad hi koi sochta hoga. kyoki har koi aapnay faaiday kay liyay zindgi ji raha hai. phir wo chahay jo kar raha hai sahi ho ya galat. per garima ji sach to yay hai ki kamjoor insaan ka koi saath nahi dayta. wo insaan kya karay kya wo sabki madad karta rahay. phir chahay uskay pechay uska mazak banta rahay. ya wo sabsay dabta rahay. jo asa hai wo darta nahi per wo kisi ka bura nahi kar sakta, bura soch nahi sakta yay kami hai. mera maanna hai koi kisi ki help nahi karta aaj kay time may. aap aapne madad khud karay to baat ban sakte hai. jo jaisa hai uskay saath waisa hi kiya jaaye. per mein aapke baato say bahoot jayada impress hu. mein aapne problems may aapke rai layna jaruur chahuga.......
बहुत अच्छा लिखा है। जीवन का व्यवहारिक ग्यान है इसमें। बहुत सी बातें केवल हम तोते की तरह रट लेते हैं किन्तु उनका विशेष परिस्थिति में प्रयोग करना नहीं जानते। यही जान जाएँ तो जीवन की सारी समस्याओ का समाधान हो जाए। जीने की कला भी यही है। सुन्दर सारगर्भित लेख के लिए बधाई।
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