बुधवार, 30 जुलाई 2008

क्या आप सफल अभिभावक हैं?

हालाँकि यह सवाल पूछने या जवाब बताने का मेरा कोई हक नही बनता, मै खुद को अभी ३ साल से बडा नही मानती, कारण कि कई बार मेरा भाई जो कि अभी ५ साल का है, ऐसी बातें बोलता है, जिन्हे सुनकर खुद को लगेगा कि इसके आगे तो अपनी सोच की कोई हैसियत ही नही है!

कई बार मेरी बहने भी मुझे गुरू की जगह दिख जाती है, और लल्ली से आप परिचित ही हैं, इनके सामने खुद को बडा़ मानना...

फिर भी अक्सर मुझे लगता है कि जिस दौर से मै गुजर रही हूँ, वो अभिभावक और बचपन के बीच की कडी है, जहाँ मै खुद भी सीख रही हूँ, और दूसरों को सिखा भी रही हूँ।
इस तरह सोचने के कई कारण हो सकते हैं.. मै कारण बताने के पीछे ना जाकर, सीधे अपनी बात पर आ रही हूँ।

मेरे पास अक्सर ऐसे लोग आते हैं, जो अपने बच्चे के भविष्य के लिये व्यथित हैं, चिंतित हैं, अब ये तो अच्छी बात है, पर कभी कभी यह चिन्ता इतनी ज्यादा होती है कि उस बच्चे का जीना ही मुश्किल हो जाता है।
कई ऐसे उदाहरण मेरे सामने आते हैं, हँसता खेलता बच्चा किसी मानसिक बीमारी का शिकार हो जाता है, अच्छा सा बच्चा उदण्ड हो जाता है, मेधावी बच्चा पढने से डर जाता है, खेलकूद मे आगे रहने वाला बच्चा अपने आपको एक कमरे बंद कर लेता है, और भी ना जाने कितने तरह से परेशान होता है बचपन, और जब यही बचपन आगे बढता है तो इसके इतने उल्टे-सीधे परिणाम निकलते हैं, जिसकी तरफ़ सोचा भी नही जा सकता।
आप माने या ना माने, इसमे सबसे ज्यादा गलती अभिभावक की ही होती है, बाकी की कसर शिक्षक और दूसरे लोग पूरा कर देते हैं। ऐसे मे आप चिल्लाते रहिये कि आज की युवा-पीढी़ भटक गयी है, आज ये आज वो।ये तो होना ही है, जब बीज ही सही ढंग से नही डाला जायेगा तो बढिया फसल के लिये आशा रखना व्यर्थ ही है।

कई बार देखा है कि जो अभिभावक अपने कुछ सपने/अरमान पूरा नही कर पाये होते हैं, वो अपने बच्चो से उम्मीद रखते हैं कि बच्चा वो सपना पूरा करे। यह गलत नही है, आपका हक बनता है, परन्तु आपका बच्चा भी एक अलग व्यक्तित्व का मालिक है, उसके भी कुछ अपने सपने हैं, कुछ अलग गुणवत्ता है, जो बचपन से जग-जाहिर होने ही लगती है।
मसलन कुछ बच्चे पढा़कू होते हैं, उसमे भी किसी विषय मे उनको बहुत ज्यादा रूचि होती है तो किसी विषय मे बहूत कम; ठीक इसके उल्टे कुछ बच्चो को किताब नाम से ही डर लगता है, पढना तो दूर की बात है।
सिर्फ इतना ही नही यह बिल्कुल जरूरी नही कि आपको जे चीज पसन्द नही वो वो आपके बच्चे को भी नही पसंद हो। आखिर उसे भी अपनी पसन्द ना पसन्द से जीने का हक है। सिर्फ आपकी ही निजी जिन्दगी नही है, बल्कि उस बच्चे की भी है। इसलिये जरूरी बनता है कि, आप उसके व्यक्तित्व को समझे जाने, अगर बच्चे के भविष्य को सही रूप-रेखा देना आपकी जिम्मेदारी है तो उसके साथ ही, उसका व्यक्तित्व विकसित हो यह भी आपकी ही जिम्मेदारी है
और यह तभी हो सकेगा जब आप उसे खिलने को पूरा मौका दें, जब आप उसके पथ प्रदर्शक बने ना कि, अपने साथ अपने रास्ते पर चलने पर मजबूर करें।
आप आदर्शवादी हैं तो यह बिल्कुल जरूरी नही कि वो भी आदर्शवादी ही होगा, और अगर आपका आदर्श उससे उसका बचपन छीन रहा है फ़िर तो वो किसी भी सूरत मे आदर्शवादी नही बनेगा, फिर वो जो बनेगा/बन सकता है, उसका अन्दाजा लगाना भी मुश्किल है।

कुछ दिन पहले आगरा से प्रतिष्‍ठित परिवार से मेरी बात हुई, वो बहुत परेशान थे, उनका इकलौटा बेटा जो कि मात्र १५ साल का था, गलत संगति मे पड गया, हर तरह से उन्होने उसे समझाने की कोशिश की पर वो नही सुधरा। कितने ही मनोचिकित्सक को दिखलाया गया, कितनी ही काउँसलिंग हूई पर सब बेअसर। जब मेरे सम्पर्क मे लोग आये तो उन्हे किसी ने बताया था कि वह किसी प्रेत-बाधा से ग्रसित है। जब मैने उस लडके से बात की तो एक बात पता चली कि, उसके अन्दर इतना आक्रोश भरा हुआ था, अपने मम्मी पापा को सिर्फ़ उनको तंग करने के लिये वो सारी गलत हरकते करता था, बाद मे उसको आदत बन गयी।
उसे बिल्कुल परवाह नही थी कि लोग क्या कहते हैं, बल्कि उसे मजा आता जब लोग ये कहते कि बेचारे शर्मा जी (काल्पनिक नाम) एक ही औलाद है और ऐसी निकली, खुद तो आदर्श के प्रतिमूर्ती हैं और जब शर्मा जी को यह सब सूनकर रोना आता तो उसको मजा आता।
ऐसे ही मुझे एक केस मिला था, लडकी इतना पढती थी कि वो पढना ही उसके पागल होने का कारण बन गया था, वो तब भी यही कहती, पापा मै आपको जरूर दिखाऊँगी कि मै भी कुछ कर सकती हूँ, हर वक्त की एक ही रट, और किताबे तो जैसे वो खुद ही। आदि से अन्त तक उसे सब जबानी याद था।
दूर ना जाकर एकदम आज की बात कर रही हूँ, मै अपने भाई को स्कूल से ला रही थी, भाई के साथ एक और बच्चा निकला, वो बेचारा डरा सहमा सा, उसकी मम्मी उसे लेने आई हुई थी, मम्मी को देखते ही वो और ही सहम गया।
रास्ते मे भाई बताते आया कि दीदी ये सौरभ है, ये ना दौडने मे तेज है पर उसकी मम्मी उसे हमेशा पढाई पढाई करके डाँटती रहती हैं ना, इसलिये वो हमेशा डरा रहता है, और आज ना वो बीमार पड गया था।
कुछ देर की शान्ति के बात गौरव ने कहा झुको,
क्यों?
मुझे ना आपको कुछ देना है।
तो दो ना।
ना पहले झुको। और उसने मुझे गले लगा लिया।
अरे बस बस घर पर नही है हम, रास्ते मे हैं, बीच रास्ते मे खडे नही होते कोई गाडी टक्कर दे सकती है।
दीदी, ये इसलिये था क्योंकि मै भी तो नही पढता था, पर आप सौरभ की मम्मी की तरह मुझे नही डाँटती थी, तो मेरा प्यार आज आपके लिये १००० हो गया। ( ये उसका अपना तरीका है, अपना प्यार दिखाने के लिये, १००० सबसे ज्यादा और ० सबसे कम)
अच्छा बेटा तो फ़िर तुमने पढना क्यों शुरू कर दिया?
वो इसलिये क्योंकि आप मुझे मेरे मन का काम करने देती हो, तो मेरा भी फर्ज बनता है ना कि मै आपके मन का काम करूँ। :) ध्यान दिजिये कि मेरा भाई अभी क्लास १ मे है, और कोई आकाश से उतरा हूआ फरिश्ता भी नही है, आपके बच्चो के जैसा ही एक सामान्य सा बच्चा है। जब उसकी सोच इस तरह से हो सकती है तो मुझे लगता है कि सभी बच्चो की सोच ऐसी हो सकती है। जरूरत है सही तरीके से देख रेख की।

इस पर अभी बहुत कुछ कहना है.. पर अगली कडी मे.. और हाँ अभिभावक गण मुझे माफ करें, मुझे कोई हक नही बनता किसी को चोट थ पहुँचाने का, पर मुझे लगा कि किसी ना किसी को तो इस पर बात करनी चाहिये.. तभी कोई सही रास्ता निकल कर आ सकता है, और जितनी भी महिलायें मेरे लेख को पढ रही हों, प्लीज मुझे ये मत सुनाना कि "जब तुम माँ बनोगी तब समझ मे आयेगा कि बच्चे को कैसे सम्भालते हैं" जो कुछ भी शिकायत होगी मै सूनूँगी पर पूरी बात खत्म होने के बाद।

तो मिलते हैं अगली कडी़ मे।

14 टिप्‍पणियां:

शोभा ने कहा…

गरिमा जी
आपने जो प्रश्न उठाया है वह बहुत अच्छा है। प्रत्येक अभिभावक को यह प्रश्न अपने आप से पूछना चाहिए।
सुन्दर प्रस्तुति।

रंजना ने कहा…

गरिमा जी,बहुत सही बात बहुत ही अच्छे ढंग से आपने लिखी है.काश सभी अभिभावक ऐसी सोच रख पाते तो बहुत सारे बचपन दिग्भ्रमित होने से बच जाते.

रंजू भाटिया ने कहा…

बच्चो के लिए सपने देखे पर यूँ नही ..बहुत सार्थक लेख लिखा है आपने गरिमा ...बच्चो का मनोविज्ञान समझना चाहिए

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

हम क्या कहें। अभी पिछले महीने मनोवैज्ञानिक के पास से आ रहे हैं - इस विषय में सलाह ले कर।

Udan Tashtari ने कहा…

अच्छी सीख-अच्छी बातें. जारी रहिये, इन्तजार है.

vipinkizindagi ने कहा…

"tare zamin par" film men bhi bachcho ke manovigyan ke bare men hi bataya gaya hai.

admin ने कहा…

सही कहते हैं आप। वह परवरिश ही है, जो बच्चों का भविष्य निर्धारित करती है।

मोहन वशिष्‍ठ ने कहा…

गरिमा जी अच्‍छा लिखा आपने लेकिन अभी जवाब मेरे पास नहीं हे बाद में बता दूंगा बधाई

Anita kumar ने कहा…

मैडम ये तो बताइये कि आप ने ये कैस सुलझाये कैसे, बहुत बड़िया लिखा है और बहुत ही सामयिक विषय है, बधाई

Smart Indian ने कहा…

गरिमा जी,
बहुत ही ज्वलंत प्रश्न उठाया है आपने.

भारतीय सन्दर्भ में माँ-बाप का यह जानना और समझना बहुत ज़रूरी है कि उनका बच्चा भी उनसे अलग एक स्वतंत्र व्यक्तित्व रखता है और वह उनकी संपत्ति नहीं है बल्कि उनकी कल्पना से कहीं आगे बहुत बड़ी संभावनाएं समेटे हुए है.

इतने विचारपूर्ण लेख के लिए बधाई!

Prakash ने कहा…

Bahut hi Achha...

बेनामी ने कहा…

aap ki chintaa aur vichaar satya aur samsaamyik hai. yah abhibhawak ko swayam ko tatolne ko mazboor kartaa hai .

योगेन्द्र मौदगिल ने कहा…

शुभकामनाएं पूरे देश और दुनिया को
उनको भी इनको भी आपको भी दोस्तों

स्वतन्त्रता दिवस मुबारक हो
vivekpurn, saarthak evm aavashyak aalekh..
bahut bahut babhai,,,

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) ने कहा…

एक अच्छा अभिभावक बनना खेल थोड़ा ही ना है...बहुत धैर्य..और सहनशीलता की आवश्यकता होती है इसके लिए..जो दुर्भाग्यवश हममे से बहुत कम जनों के पास है....