मंगलवार, 22 जुलाई 2008

लाल गुलाब


रोज की तरह आज भी उस गली से निकलते ही लल्ली दौडी दौडी आयी, दीदी आपके लिये, उसे देखकर चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट भी छा गयी, पर मैने रूठने का नाटक करते हुए कहा, लल्ली तू फ़िर से लाल गुलाब लायी, तेरे पापा डाँट लगायेंगे, वो इनका व्यापार करते हैं, बाँटने के लिये थोडी ना रखा है, लल्ली ने हँसते हुए कहा, दीदी आप लोगो को जीवन देती हैं, फिर क्या मै आपके पसंद का एक गुलाब आपको नही दे सकती?
लल्ली से बहस करना बेकार था, बच्ची है, पर, शायद कभी बडी हो भी नही पायेगी, और कहती है मै उसको जीवन दे रही हूँ, मुझे रोज उसके लाल गुलाब याद दिलाते रहते हैं कि गरिमा तू कुछ भी कर ले, इस लाल गुलाब को एक दिन मुरझाना ही पडेगा।
लल्ली थैलीसीमीया की मरीज है, थैलीसीमीया जो की एक ला- ईलाज बीमारी है, इसका ऑपरेशन हो भी सकता है पर इसके लिये ढेर सारे पैसे चाहिये, लल्ली के पापा सब्जी और फूल बेचते हैं, वो इस ऑपरेशन का खर्च कभी नही उठा पायेंगे, और कही से कर्ज लेकर लल्ली का ऑपरेशन करा भी ले, तो भी लल्ली के जिन्दा रहने की उम्मीद ना के बराबर है, जबसे मै थैलीसीमिक बच्चो पर काम कर रही हूँ, उन्हे बस इतना सा सूकुन मिल पाया है कि जिस दर्द, कमजोरी से उन्हे गुजरना पडता था, वो अब उन्हे कम होता है, या नही होता है, यानि की वो लाल गुलाब थोडी देर के खिला-खिला सा है, पर कब तक? इस कब तक ने मुझे फिर से लल्ली के सामने खडा कर दिया, ये क्या दीदी आप फिर से सोचने लगी, आपकी ये आदत अच्छी नही है, वो थोड़ी हाड़ोती और थोड़ी हिन्दी मिलाकर बोलती है, मुझे हाड़ोती समझ मे नही आती, और लल्ली को हिन्दी नही आती है, पर लल्ली मुझसे बात करने के लिये हिन्दी बोलना सीख रही है, लल्ली वास्तव मे बहुत समझदार और होशियार है, वो पढने भी जाती है और मेधावी छात्रा भी है, लल्ली कहने लगी चलो मेरे घर आपको मै अपने पेपर्स दिखलाऊँ, मुझे बहुत अच्छे मार्क्स मिले हैं, मै उसके साथ चल लेती हूँ, रास्ते मे ही घर है उसका, इसलिये कोई दिक्कत नही होगी, रास्ते मे चलते चलते मै अपने विचारो मे खो जाती हूँ, ऐसा क्यों होता है भगवान जिनको शारीरिक स्वास्थ्य नही देता उनका दिमाग तेज देता है, जो उनके लिये तकलीफ़ का सबब बन जाता है, लल्ली के लिये भी तो, वो जानती है कि कभी भी उसके दरवाजे पर मौत की दस्तक आ सकती है।
पहली बार जब मुझसे मिली थी तो उसने यही कहा था, वो पल मै कैसे भूल सकती हूँ, तब तक लल्ली फ़िर से बोल पडी दीदी, "लो आ गया मेरा घर, चलो क्या सोच रही हो, ना ना पहले ठहरो, मै जरा अपना घर देख आऊँ कि आपके देखने लायक है भी या नही", वो खुद ही बोले जा रही है, माँ तो सुबह से ही दुसरो के घर काम करने चली जाती है, बापु भी चले जाते हैं सब्जी बेचने, फ़िर मै और मेरा भाई बचते हैं, और आजकल तो मै भी बापु का हाथ बटा रही हूँ, भाई अभी छोटा है ना, और उसे तो बड़ा होकर कुछ अच्छा काम करना है, इसलिये मै ही कम कर लेती हूँ।
मै किंकर्तव्यविमूढ़ होकर उसे देख रही हूँ, जी चाहता है बोलूं कि क्यो, तुझे बड़ा नही होना है, पर हाथ मे पडा लाल गुलाब रोक रहा है, मानो वो बोल रहा है कि ये क्या पूछने जा रही हो, तुम्हे नही पता इसे भी मेरी तरह असमय मुरझा जाना है, तो मै कहती हूँ कोई बात नही लल्ली, घर कैसा भी हो घर होता है, मेरा घर भी तुम्हे बिखरा मिल जायेगा, मेरा भाई हमेशा धूम मचाता रहता है, पूरा कमरा अस्त-व्यस्त ही रहता है, तू तो मुझे अपने मार्क्स दिखा, देखूं तो मेरी लल्ली कितने मार्क्स लायी है? और वो हँसते हुए मुझे अपने घर मे ले जाती है, वास्तव मे पूरा घर अत्यन्त बिखरा हुआ है, बैठने की जगह समझ मे नही आ रही है, मै खडे खडे ही मार्क्स देख रही हूँ, लल्ली ने सारे विषयो मे अच्छा किया है, मै उसको शाबाशी दे रही हूँ, तभी लल्ली गंभीर खडी हो जाती है, मै पुछती हूँ क्या हूआ, कुछ देर बार वो बोलती है, दीदी अगले जनम मे भी मुझे शाबाशी देने आओगी? बोलो ना?
अब मै मौन थी, हाथ का लाल गुलाब मुझे चिढा रहा था, बोलो तुम्हे तो लाल गुलाब बहुत पसंद है ना, क्या तुम इस लाल गुलाब को बचा पाओगी, या फ़िर यह भी वक्त के हवाले मुरझा जायेगा।
गहन खामोशी वातावरण मे तैर जाती है, कुछ देर बाद लल्ली ही इस खामोशी को तोडती है, जाने दो दीदी मै भी क्या पूछ बैठी, आप ही तो कहती हो कि जो पल हैं उनको जी लो, जो नही है उसके लिये चिन्ता कैसी? और गीता उपदेश की तरह मुझे उपदेश दे रही है, जो होगा सो अच्छा होगा, जो नही होगा वो भी अच्छा होगा, मेरे मन मे चल रहा है, आत्मा कभी मरती नही और अजर अमर रहती है, पर लल्ली को देखकर लगता है, भले लल्ली की आत्मा अजर अमर हो पर उस अकेले आत्मा को मै नही जानती, वो आत्मा जो लल्ली के शरीर के साथ मिलकर एक जीवन बना है, उसे जानती हूँ, और एक दिन वह आत्मा तो, इस शरीर को छोडकर किसी और शरीर मे चली जायेगी, पर जीवन लल्ली का नही किसी और का होगा.... विचार तर्क पर हावी हो रहे है, आस्तिकता और नास्तिकता मे जंग चल रही है, तभी लल्ली कहती है, दीदी आपके मेडिटेशन क्लास का वक्त हो गया होगा। आप जाओ। माफ़ करना दीदी आज मेरे घर मे खाना नही बना, तो मै कुछ खिला नही सकती... और वो शर्म महसूस करती है।
मै पूछती हूँ तुने कुछ खाया, वो मौन खडी रह जाती है, मै उसे कहती हूँ बाहर चल कुछ खाते हैं, मुझे भी भूख लगी है, और मुझे अकेले अच्छा नही लगता , लल्ली हँसती है, पूरे दम के साथ हँसती है, और रोज की तरह ताली बजाकर कहती है, इसिलिये तो रोज रोज समझाती हूँ, किसी को देखकर शादी कर लो, अकेले खाना नही पडेगा, अब लल्ली कितने दिन तुम्हे खिलायेगी। मै भी रोज की अंदाज मे बोलती हूँ, हाँ मेरी दादी अम्मा तू तो बहुत होशियार है, मै ही ऐसी हूँ जो तेरी बात मेरे पल्ले नही पडती, फ़िर हम हँसते हुए बाहर आ जाते हैं।
मेडिटेशन क्लास से लौटकर, हमेशा कि तरह उस लाल गुलाब को भी किताब के पन्ने मे डाल लेती हूँ, और सोच रही हूँ, की अभी हार नही मानी, अभी मेहनत करनी है, ताकि कोई लाल गुलाब इस तरह नही मुरझाये, मुझे नही पता मेरी मेहनत कब सफ़ल होगी, पर मै पीछे नही हट सकती, इसी लाल गुलाब की कसम।

8 टिप्‍पणियां:

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

यह लड़की लल्ली, पहले तो आंखें नम कर दे रही है; फिर लग रही है गुरु की तरह - जैसे कृष्ण।
बहुत कठिन दर्शन नहीं ढूंढना पड़ता गुरुत्व के लिये।
बहुत अच्छा रेखा चित्र!

pallavi trivedi ने कहा…

aise lal gulab kabhi nahi murjhate...sookhkar bhi apni khushbu bikherte rahte hain...bahut achchi post.

सागर नाहर ने कहा…

बहुत ही सुन्दर.. वैसे, आम तौर पर लल्लियाँ ना रहें या लाल गुलाब मुरझा भी जाये तो भी उनकी खुशबु बरकरार ही रहती है।

रंजू भाटिया ने कहा…

गरिमा गुलाब खिलते रहे यही कोशिश रहे ..बहुत ही भावुक कर दिया तुमने इसको पढ़वा कर ..लल्ली का दर्द कहे अनकहे ब्यान हो गया ..

Ashok Pandey ने कहा…

आपकी संवेदना से आंखे नम हो गयीं। हमें अपनी सामर्थ्‍य के अनुसार पूरी कोशिश करनी चाहिये कि ऐसा कोई भी नन्‍हा गुलाब न मुरझाये।

Udan Tashtari ने कहा…

भावुक कर देने वाली पोस्ट. ईश्वर सब शुभ करवाये आपको निमित्त बना कर.

राज भाटिय़ा ने कहा…

भगवान सभी को ठीक रखे,आप के लेख ने बहुत भावुक कर दिया, दिल भर आया, दुनिया के सभी बच्चे स्वस्थ रहे,

बेनामी ने कहा…

अरे वाह । यहां पर तो ज्ञान जी भी मौजूद हैं। लगभग सभी परिचित हैं। मैं यहां आने से कैसे रह गया। पर जब पहुंचा तब ही सही।

यह तो गद्य कविता है। जो विचार मन को छू लें। वही कविता हैं। वही सच्‍ची अनुभूति है और सच्‍चा सम्‍प्रेषण भी। सच्‍चाई भी यही है।

रेखा चित्र या चित्रों में रेखा को हमने है देखा। बहुत गरिमायुक्‍त लेखन है गरिमा जी का।