सोमवार, 19 सितंबर 2011

जानती हूं तेरे महफिल के काबिल नही हूं। तो क्या जीना छोड़ दूं?

जानती हूं तेरे महफिल के काबिल नही हूं।
तो क्या जीना छोड़ दूं?
या बंद कर लूं, खूद को ऐसे अंधेरे में।
जहां तेरे महफिल की रोशनी की झलक भी ना आए।
ना वो झंकार सुनाई दे मेरे कानो में।
ना तेरी आवाज ज़हन को चीर जाए
ना वो प्यास जगे होठों पर
ना वो तड़प तुझ तक जाए….
पर इस कदर जी भी तो नहीं सकती
माना कि,
मेरे अक्स मे इतना दम नहीं
जिसमे जगमगा सके तेरा महफिल
पर एक वजुद तो मेरा भी है…
कैसे मिटा दूं इस हस्ती को?
या फिर वो हक तुझे दे दूं!
जिसके लिए मेरा होना,
किसी शाप से कम नहीं।
इसलिए
तुझे तेरे महफिल की सारी रंगीनियां मुबारक
मैं, मेरे वजुद को समेटे
एक अलग दुनिया बना लूंगी।
इस खुशफहमी में मत जीना कि
लौट कर आऊंगी मैं कभी
कि मेरे पग लड़खड़ायेंगे
या थरथरा जाएगी मेरी जुबान
या मेरी दुनिया का अंधेरा मुझे
तेरी रोशनी में लौटने पर विवश कर देंगे।
तेरी नजर में जो मेरी यह अंधेरी दुनिया है
वो तेरे महफिल से बेहतर होगी
क्योंकि यह मेरे अपने जीने की वजह होगी…

4 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सबका अपना अधिकार है जीवन में।

Rashmi Swaroop ने कहा…

touching and beautiful..

...aur 'isliye' ke baad se jo mod liya hai.. gazab!

सुनील अमर ने कहा…

यह गरिमा की कविता नही बल्कि उनका आत्मसाक्षात्कार है. ख़ुद को पहचानने और अपने वजूद को साबित करने की एक ज़िद भरी सच्चाई ! यह आत्मश्लाघा नहीं, कवियत्री का ऐलान है की वह सारे कष्ट उठा लेगी लेकिन किसी की मोहताज़ बनकर, किसी की परछाई बनकर जीना उसे अब कबूल नही.
मैं, मेरे वजुद को समेटे
एक अलग दुनिया बना लूंगी।
इस खुशफहमी में मत जीना कि
लौट कर आऊंगी मैं कभी
कि मेरे पग लड़खड़ायेंगे
या थरथरा जाएगी मेरी जुबान
या मेरी दुनिया का अंधेरा मुझे
तेरी रोशनी में लौटने पर विवश कर देंगे।
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जो पाठक गरिमा जी को ज़रा करीब से जानते होंगें, उन्हें लगेगा कि वो कविता के रूप में उनका आत्मकथ्य ही पढ़ रहे हैं. यह एक बड़ी बात है. ख़ुद को इतनी साफगोई से अपने पाठकों के सामने रख देना.
@ गरिमा, आपको मेरी शुभकामनायें !!

Gaurav Maheshwari ने कहा…

मैं उसका रहा , वो बेगाना रहा .
मेरी नजरो में उसका ही अफसाना रहा .

प्यार उसकी बेवफाई पे आया हमेशा ,
कुछ ऐसा मैं पागल दीवाना रहा .

जलता रहा दूर शम्मा से उम्र भर ,
एक ऐसा भी यारो परवाना रहा .

किस्मत ही अपनी सितमगेर रही ,
कि निशाने पर सर कभी सर पर निशाना रहा .

जिसको चाह वही न मिल सका बस ,
यूँ तो कदमो ’में सारा ज़माना रहा .

कुसूर था खिज़ा का कि बदनाम थी वो ,
गुलिस्ताओ मे फिज़ाओ का आना जाना रहा .

दूर चल कही ’n वीरानो ’n में ‘गौरव ’,
अब इस शहर में तेरा न ठिकाना रहा