खुला आकाश, महकता पवन, खिलखिलाता मौसम... और अचानक कही दर्द, रूठता मौसम, सिमटता जीवन, ये सभी रूप जीवन के ही रूप है, एक दुसरे से अलग पर एक दुसरे के बिना अधूरे
सोमवार, 30 अप्रैल 2007
अहसासो के शहर मे
अहसासो के शहर मे खो गये हैं बोल मेरे, मूक होकर खडी हूँ टूट गयी है क़लम।
जो कहना है कह ना सकूंगी, तुम्हारे सामने चुप भी ना रह सकूंगी।
पर कहूँ भी तो कैसे कहूँ शब्द मिलते नही। मौन की आवाज़ तुम सुनते ही नही।
हर किसी के पास मौन की अपनी एक परिभाषा होती है ना । जैसे मैंने कभी ये पंक्तियां लिखी थी। "मौन" तुम खड़ी प्रत्यक्ष मेरे किंतु मौन, मैं खड़ा प्रत्यक्ष तुम्हारे किंतु मौन, यूं कितनी ही बातें अप्रत्यक्ष कर ली हमने। यह मौन ही इस पल की परिभाषा है शायद, इस मौन से ही मुखर होता है प्रेम ॥
8 टिप्पणियां:
पर कहूँ भी तो कैसे कहूँ
शब्द मिलते नही।
मौन की आवाज़
तुम सुनते ही नही।
कविता के भाव बहुत सुन्दर हैं, खास कर ये पंक्तियाँ दिल को छू गई।
सुन्दर कविता... वाक़ई ये आख़िरी पंक्तियाँ बेहतरीन हैं।
सुंदर भाव संयोजन।
हर किसी के पास मौन की अपनी एक परिभाषा होती है ना ।
जैसे मैंने कभी ये पंक्तियां लिखी थी।
"मौन"
तुम खड़ी प्रत्यक्ष मेरे किंतु मौन,
मैं खड़ा प्रत्यक्ष तुम्हारे किंतु मौन,
यूं कितनी ही बातें अप्रत्यक्ष कर ली हमने।
यह मौन ही इस पल की परिभाषा है शायद,
इस मौन से ही मुखर होता है प्रेम ॥
शुभकामनाएं
सही है.
पर कहूँ भी तो कैसे कहूँ
शब्द मिलते नही।
मौन की आवाज़
तुम सुनते ही नही।
बहुत खूब गरिमा क्या बात है !
सागर भईया, प्रतीक जी, संजीत जी, समीर लाल जी और मनीष जी को अच्छा वाला धन्यवाद
Bahut achcha likha hai garima apne...maun ki bhasa ko rekhankit kiya hai...
Ravi
Bahut achcha likha hai garima apne...maun ki bhasa ko rekhankit kiya hai...
Ravi
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